एक तो मानव मस्तिस्क की संरचना, ऊपर से वर्तमान के खांचे में कसी सोच की धृतराष्ट्री जकड़। सो, वर्तमान की सार्थक आलोचना और भविष्य की तार्किक दृष्टि तक हम पहुंच ही नहीं पाते और आगे बढ़ने की कोशिश में हमेशा मुंह की खाते रहते हैं।और भीऔर भी

हमें अपने इर्दगिर्द हमेशा ऐसे लोगों की जरूरत होती है जो हमारी आंखों में आंखें डालकर सच बोल सकें। खासकर तब, जब हमारे दिन खराब चल रहे हों और हम बार-बार अपने लक्ष्य से चूक रहे हों।और भीऔर भी

हम सभी मूलतः साधु स्वभाव के हैं। औरों की बातों से अपने काम का ‘सार’ ही ग्रहण करते हैं। लेकिन आलोचना को बिना विचलित हुए सुनना और गुनना जरूरी है क्योंकि अक्सर उनसे नई दृष्टि मिल जाती है।और भीऔर भी