देश की अर्थव्यवस्था या जीडीपी बढ़ता है तो शेयर बाज़ार बढ़ता है। लेकिन ऐसा तुरत-फुरत नहीं होता। दोनों का रिश्ता सीधा नहीं, समय सापेक्ष है। कारण, जहां जीडीपी अतीत को दर्शाता है, वहीं शेयर बाज़ार भविष्य को सोचकर चलता है। भारत भले ही दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। लेकिन अंदर से इसकी हालत अच्छी नहीं है। फिर भी शेयर बाज़ार बढ़ रहा है क्योंकि भारत का भविष्य संभावनाओं से भरा हुआ है। भारत से बड़ीऔरऔर भी

शेयर बाज़ार में ट्रेडिंग से कमा पाना यकीनन मुश्किल है। लेकिन ट्रेडिंग के लिए स्टॉक्स चुनना आसान है। आम रिटेल ट्रेडर के माफिक वही स्टॉक्स होते हैं जिनमें लॉन्ग टर्म, मीडियम टर्म व शॉर्ट टर्म रुख बढ़ने का है। कोई स्टॉक 52 हफ्ते के शिखर के करीब हो या वहां पहुंच गया हो, तब भी उसे ट्रेड के लिए चुन सकते हैं। लेकिन लम्बे निवेश में हमें मूल्यवान शेयर को कम से कम भाव पर पकड़ना होताऔरऔर भी

शेयर बाज़ार जितना ही पारदर्शी, शेयरों के भावों की खोज उतनी ही सटीक। बाज़ार को पारदर्शी बनाना सरकार और पूंजी बाज़ार की नियामक संस्था, सेबी का दायित्व है, हमारा नहीं। हम जैसे आम निवेशक यहां आंदोलन करने नहीं आए। हमें तो कायदे के निवेश से काम भर का मुनाफा कमाकर संकरी गली से निकल लेना है। फिर भी सवाल तो उठता ही है कि तीन साल में अडाणी ग्रीन का शेयर 5000% से ज्यादा बढ़कर 55 सेऔरऔर भी

बहुत सोच-समझकर, आग-पीछा देखकर कंपनी चुनकर उसके शेयर खरीदे। फिर भी उसका शेयर बढ़ने के बजाय घाटा दे सकता है। यह शेयर बाजार का रिस्क है जिससे कोई नहीं बच सकता। इसलिए निवेशकों को एक नहीं, कई तरह की कंपनियों में निवेश करने को कहा जाता है। फिर भी कुछ ज़रूरी पहलू है जिन्हें हमें निवेश से पहले हर कंपनी में देख लेना चाहिए। पहला, कंपनी कहीं ऋण के बोझ तले दबी तो नहीं है। उसका ऋण-इक्विटीऔरऔर भी

शेयर का भाव देखकर नहीं पता चलता कि वह सस्ता है या महंगा। 5 रुपए का भी कोई शेयर महंगा हो सकता है और 5000 रुपए का शेयर भी सस्ता। शेयर महंगा है या सस्ता, इसका सबसे प्रचलित पैमाना है पी/ई अनुपात, मतलब शेयर का भाव कंपनी के प्रति शेयर लाभ (ईपीएस) से कितना गुना चल रहा है या बाज़ार कंपनी के प्रति शेयर एक रुपए के लाभ के लिए कितना दाम देने को तैयार है। दूसराऔरऔर भी

एक बात हमें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि हम कितनी भी मशक्कत कर लें, निवेश में सफलता रातोंरात नहीं मिलती। इसके लिए समय, अनुशासन व धैर्य की दरकार होती है। अगर आपको लगता है कि शेयर बाज़ार से खटाखट नोट कमाने का कोई फॉर्मूला है तो यह विचार फौरन जेहन से निकालकर दूर फेंक दें। साथ ही हमें निवेश और सट्टेबाज़ी के अंतर को साफ समझ लेना चाहिए। शेयर बाज़ार में ट्रेडिंग एक तरह का सट्टाऔरऔर भी

अनिश्चितता से भरी दुनिया है तो धंधे में भी ऊपर-नीचे चलता रहता है। कभी तेज़ तो कभी मंदा। कंपनियों के शेयर सीधे-सीधे उसके धंधे से प्रभावित होते हैं तो अगर उसमें ऑपरेटर सक्रिय न हों तो धंधे के मंदा पड़ते ही शेयर भी ठंडे पड़ने लगते हैं। ऐसे में लम्बे समय के निवेशक को क्या करना चाहिए? नियम व समझदारी कहती है कि अगर किसी भी वजह से कोई शेयर हमारे खरीद मूल्य से 25% तक गिरऔरऔर भी

सामान्य निवेशक के लिए शेयर बाज़ार में कोई सुरक्षित कोना पकड़ पाना बेहद कठिन है। हर तरफ इतना शोर, भ्रम, भारी-भरकम शब्दजाल और लूट-खसोट है कि वह घबरा कर छिटक जाता है। ट्रेडिंग की बात करें तो कहा जाता है कि 90% ट्रेडर इसमें घाटा खाते हैं। जो 10% घाटा नहीं खाते, वे इतना भी नहीं कमा पाते कि अपने परिवार के लिए औसत ज़िंदगी सुनिश्चित कर सकें। सालों-साल से यही सिलसिला चला आ रहा है। फिरऔरऔर भी

देश-दुनिया में बुरी खबरें आती ही रहती हैं। लेकिन भारत जैसे विकासशील देश की अर्थव्यवस्था अपनी संपूर्ण संभावना को हासिल करने की दिशा में बढ़ती रहती है। इसलिए यहां का शेयर बाज़ार भी बराबर बढ़ता रहता है। आज आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 12 साल पहले अप्रैल 2011 में एनएसई निफ्टी 5550 और बीएसई सेंसेक्स 18,500 अंक के आसपास था। इन 12 सालों में तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद दोनों सूचकांक तीन गुना से ज्यादा बढ़ चुके हैं।औरऔर भी

शेयर बाज़ार चार महीने से कदमताल ही किए जा रहा है। आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रहा। बहुत सारे निवेशकों व ट्रेडरों को लगता था कि उथल-पुथल भरे साल 2022 के बाद 2023 उठाव का साल होगा। लेकिन न तो अभी तक ऐसा हुआ है और न आगे ऐसा होने के कोई आसार दिख रहे हैं। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका अगले छह महीनों में मंदी की शिकार हो सकती है। विश्व अर्थव्यवस्था पर अनिश्चितताऔरऔर भी