हम सब अपने ही नाथ हैं। खुद ही सब करना या पाना है। कहते हैं कि भगवान सभी का नाथ है। लेकिन भगवान तो महज एक मान्यता है। मन का धन है। अन्यथा तो हम सभी अनाथ हैं। कहा भी गया है कि मानिए तो शंकर हैं, कंकर हैं अन्यथा।और भीऔर भी

मन व्यग्र व परेशान हो तो हमें उसे शांत, स्वस्थ, संतुलित व संतुष्ट रखने के लिए, यकीन मानिए, निजी तौर पर किसी मनोरंजन की जरूरत नही होती क्योंकि हमारे सपने न जाने कहां-कहां से नायाब छवियां निकालकर यह काम बखूबी कर डालते हैं।और भीऔर भी

असहाय आदमी का मन और आसरा न टूटे, इसलिए चलेगा भगवान। इस बेरहम व पत्थर दिल दुनिया में एक भगवान ही तो है जो सोते-जागते हर पल कमजोर का साथ देता है। इसलिए भगवान को केवल पत्थर की मूर्ति या अमूर्त सत्ता मानकर नहीं चला सकता।और भीऔर भी

शरीर की स्वतंत्र चाल है। मन भी स्वतंत्र और उच्छृंखल है। लेकिन दोनों एक दूसरे से स्वतंत्र नहीं। दोनों अभिन्न हैं। एक की चाल दूसरे को प्रभावित करती है। इसलिए अगर एक को ठीक रखना है तो दूसरे का भी उतना ही ख्याल रखना जरूरी है।और भीऔर भी