वित्त मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने सफाई दी है कि सरकार रुपए को गिरने से बचाने के लिए विदेशी मुद्रा की आवाजाही पर कोई नियंत्रण नहीं लगाने जा रही है। इससे पहले इस तरह की खबरें आई थीं कि रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव की अध्यक्षता में वित्तीय स्थायित्व विकास परिषद (एफएसडीसी) की गुरुवार, 8 दिसंबर को होनेवाली बैठक में भारतीय कंपनियों के विदेशी निवेश और बाहरी ऋणों की पूर्व अदायगी पर बंदिश लगाई जा सकती है।
इसके अलावा रिजर्व बैंक के डिप्टी-गवर्नर सुबीर गोकर्ण ने भी शनिवार को एक समारोह के पेश लिखित भाषण में कहा था कि रिजर्व बैंक रुपए की गिरावट को रोकने के लिए ‘रणनीतिक पूंजी नियंत्रण’ जैसे सभी उपलब्ध उपायों को अपनाने से नहीं हिचकेगा। लेकिन रॉयटर्स ने वित्त मंत्रालय के हवाले यह खबर देकर सारे आशावाद व कयासबाजी का पटरा कर दिया कि सरकार ऐसा कोई ‘पूंजी नियंत्रण नहीं’ लागू करने जा रही है।
इस बीच सोमवार को यूरोप के ऋण संकट का समाधान फंसने के अंदेशे में रुपए में फिर गिरावट दर्ज की गई। शुक्रवार को अमेरिकी डॉलर 51.20/21 रुपए का था। लेकिन आज रुपया 0.4 फीसदी कमजोर हो गया और एक डॉलर की दर 51.41/42 रुपए पर बंद हुई। बता दें कि रुपया एशिया की सबसे ज्यादा पीटी जानेवाली मुद्रा है। साल 2011 में यह अभी तक 13.05 फीसदी गिर चुकी है, जबकि दूसरी मुद्राएं डॉलर के सापेक्ष 4 फीसदी तक ही गिरी हैं। 22 नवंबर को डॉलर की दर 52.73 रुपए पर ऐतिहासिक रिकॉर्ड बना चुकी है। अगस्त के बाद से ही रुपया करीब 16 फीसदी गिर चुका है।
हालांकि यूको बैंक के वरिष्ठ प्रबंधन उदय भट्ट कहते हैं कि अगर कोई बड़ा नकारात्मक वाकया नहीं होता तो अब रुपया का प्रति डॉलर 52 के पार जाना मुश्किल है। लेकिन यूरोज़ोन की 9 दिसंबर को होनेवाली शिखर बैठक के मद्देनजर मुद्रा बाजार की धुकधुकी बढ़ी हुई है। जानकारों का कहना है कि अगर रिजर्व बैंक अपने सीमित विदेशी मुद्रा संसाधनों का अधिकतम कुशल इस्तेमाल करते हुए विदेशी निवेशकों के भरोसे को कायम नहीं रख सका और रुपया यूं ही गिरता रहा तो भारत साल 1991 से भी विकट वित्तीय संकट में फंस सकता है। याद करें, 1991 में देश को सोना गिरवी रखना पड़ा था और मजबूरन रुपए का अवमूल्यन करना पड़ा था।
बैंक ऑफ बड़ौदा की मुख्य अर्थशास्त्री रूपा रेगे नित्सुरे ने मुंबई में कहा, “यूरोज़ोन के संकट के विकट होने का पहला शिकार भारतीय मुद्रा बनेगी।” यूरोप के संकट के गहराने से भारत का व्यापार घाटा और भी तेजी से बढ़ेगा और विदेशी मुद्रा को खींच पाना ज्यादा दुरूह हो जाएगा। नित्सुरे के मुताबिक, विदेशी निवेशकों के जोखिम उठाने की क्षमता खत्म हो जाएगी और धीरे-धीरे मुद्रा का संकट एक दिन भुगतान संतुलन का संकट बन सकता है। देश के चालू खाते का घाटा फिलहाल 14.1 अरब डॉलर हो चुका है। वित्त वर्ष के अंत तक इसके 54 अरब डॉलर हो जाने का अनुमान है।
पिछले हफ्ते 29 नवंबर को विदेशी बैंक यूबीएस ने एक नोट में कहा है, “अचानक भारत में सारा कुछ सिर भन्नाता नजर आ रहा है। विकास की दर गायब हो रही है। रुपया बिखर रहा है। मुद्रास्फीति रिकॉर्ड स्तर के करीब है। निवेशकों की मानसिकता सतर्क से एकदम डरी हुई अवस्था में जा पहुंची है।” विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) इस साल अभी तक शेयर बाजार से कुल मिलाकर 5 करोड़ डॉलर निकाल चुके हैं, जबकि पिछले साल उन्होंने 2900 करोड़ डॉलर का शुद्ध निवेश किया था। पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी के मुताबिक अकेले नवंबर माह में एफआईआई ने बाजार से 66.10 करोड़ डॉलर निकाले हैं।
इस बीच देश का विदेशी मुद्रा भंडार घटकर 304 अरब डॉलर पर आ गया है तो मुद्रा बाजार के डीलर रुपए के गिरने पर दांव लगाने रहे हैं। इस समय डॉलर के सापेक्ष तीन महीने के वायदा में रुपए का भाव 1.7 फीसदी और साल भर के वायदा में 4.5 फीसदी नीचे चल रहा है।
विदेशी निवेश व ब्रोकरेज फर्म सीएलएसए के साथ सिंगापुर में जुड़े अर्थशास्त्री राजीव मलिक का कहना है कि रुपए की कमजोरी बाहरी कारकों के चलते पैदा हुई है और रिजर्व बैंक को अनावश्यक हस्तक्षेप से बचना चाहिए। उनका कहना है कि रिजर्व बैंक की सबसे बड़ी गलती यह है कि उसने सट्टेबाजों को रुपए में शॉर्ट करने का खुला न्यौता जैसा दे डाला है। किसी भी केंद्रीय बैंक के लिए खुल्लमखुल्ला यह कहना घातक है कि वह हस्तक्षेप नहीं करेगा, वह भी तब, जब मुद्रा पर दबाव बढ़ा हुआ हो और विश्व के मंच पर भयंकर अनिश्चतता छाई हुई हो।
मलिक का कहना है कि रिजर्व बैंक इस समय अजीब स्थिति में फंसा हुआ है। एक तरफ उसे विदेशी मुद्रा भंडार को अनावश्यक खर्च करने से बचाना है। दूसरी तरफ, अगर रुपया यूं ही बेरोकटोक गिरता रहा तो इसके घातक परिणाम हो सकते हैं। इसलिए रिजर्व बैंक के पास इंतजार करने के लिए ज्यादा वक्त नहीं है।