हम बहुत सारी चीजों को ही नहीं, बहुत सारे लोगों को भी टेकन-फॉर ग्रांटेड ले लेते हैं। खासकर उन लोगों को जो हम से बेहद करीब होते हैं जैसे बीवी-बच्चे। ये लोग हमारे अस्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं उसी तरह जैसे हमारे हाथ-पांव, हमारी आंख-नाक, हमारे कान जिनके होने को हम पूरी तरह भुलाए रहते हैं जब तक इनमें से किसी को चोट नहीं लग जाती। इनके न होने का दर्द उनसे पूछा जाना चाहिए जो फिजिकली चैलेंज्ड हैं। इसी तरह जिन बीवी-बच्चों को हम घर की मुर्गी दाल बराबर समझते हैं, जो हमारे लिए भौतिक ही नहीं, मानसिक सुकून का इंतज़ाम करते हैं, उनके होने की कीमत हमें उनसे पूछनी चाहिए जो इनसे वंचित हैं, 35-40 के हो जाने के बावजूद छड़े बनकर जिंदगी काट रहे हैं।
एक दिक्कत हम पांरपरिक भारतीयों के साथ और भी है कि हम औरों पर तो जमकर खर्च कर देते हैं, लेकिन जहां कहीं खुद पर खर्च करने की बात आती है, वहीं हम पूरी कंजूसी पर उतर आते हैं। मितव्ययी, अपने को कष्ट में रखनेवाला व्यक्ति बड़ा सदगुणी माना जाता है अपने यहां। गांधीजी की महानता की और भी तमाम वजहें रही होंगी, लेकिन एक वजह यह भी थी कि वे सर्दी, गरमी और बरसात, हर मौसम में एक धोती में ही गुजारा कर लेते थे। फलाने तो बड़े साधू महात्मा हैं क्योंकि हिमालय की बर्फ में भी नंगे बदन रहते हैं।
अपने को कष्ट देने की यही आदत हम खुद के अलावा अपने परिवार वालों पर भी लागू कर देते हैं। अरे, क्या है… दो किलोमीटर ही दूर है। ऑटो में पैसे खर्च करने की क्या जरूरत, पैदल ही चले चलते हैं। उनकी हर छोटी-बड़ी बात और ज़रूरत को, अरे इसमें क्या है, कहकर टाल देते हैं। हमें गुमान होता है कि हम कमाकर ला रहे हैं तभी सबका गुज़ारा चल रहा है। इसी गुमान में हम अपने आश्रितों को अपनी प्रजा जैसा समझने लगते हैं। उन्हें बात-बात में झिड़कना हमारी आदत बन जाती है। लेकिन यही व्यवहार हम उनसे नहीं करते जिनके साथ नजदीकी के बावजूद हमसे थोड़ा फासला है।
दोस्त चाहे पुराना हो या नया, उसकी पूरी बात हम सुनते हैं। उसको कुछ बोलने से पहले सोचते हैं कि उसे बुरा तो नहीं लगेगा। बीवी-बच्चे कहेंगे कि चलो आज किसी होटल में खाना खाते हैं तो आप कोई न कोई बहाना बनाकर टाल जाएंगे। लेकिन दोस्त कहेगा कि आज पार्टी होनी चाहिए तो आपके लिए मना कर पाना थोड़ा मुश्किल रहेगा। दोस्त अपना लगता है, अपने बराबर का लगता है, लेकिन घरवाले अपने होते हुए भी अपने से कमतर लगते हैं, छोटे लगते हैं। शायद हमारे इसी भाव को ताड़कर घरवाले भी हमसे दूरी बनाने लगते हैं। खाने-पीने, रहने-सोने का ही रिश्ता घर से रह जाता है हमारा। ऐसी हालत में कुछ लोगों को ऑफिस इतना भाने लगता है कि वे ज़रूरत से ज्यादा वक्त ऑफिस में ही बिताने लगते हैं। संबंधों की एकरसता से जबरदस्त ऊब पैदा होती है और हम इस ऊब की वजह घरवालों को ही मानने लगते हैं। कभी अपनी तरफ नहीं देखते कि कहीं इसकी वजह हम खुद ही तो नहीं हैं।
असल में नब्बे फीसदी मामलों में घरेलू रिश्तों में ऊब और एकरसता के आने के दोषी हम ही होते हैं। हम दूसरों से केयर तो करवाना चाहते हैं, खुद किसी की केयर नहीं करना चाहते। लेकिन दोस्त तो छोड़ दीजिए, अपरिचितों के साथ भी हम केयर की मुद्रा अपना लेते हैं। इसीलिए मेरा कहना है और यह मैं हवा में नहीं, अपने तजुर्बे से कह रहा हूं कि कभी अपने लोगों के साथ, बीवी-बच्चों के साथ दोस्तों की तरह भी पेश आया करो। घर से निकलते हुए अचानक बीवी से हाथ मिला लें और पूछ लें – कैसी हैं आप। इस सिलेसिले को थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद दोहराते रहें। फिर देखिए, रिश्ते बराबर खुशनुमा बने रहेंगे। बार-बार आपका मन करेगा कि आप फौरन भागकर घर पहुंच जाएं।
बहुत सही पकड़ा है आपने भारतीय जनमानस को ।
वाह! बहुत खूब!
बहुत सही और व्यवहारिक सलाह .
ज़बरदस्त ब्लॉग है. हमने तो अर्थ शब्द देखकर अब तक नहीं पढ़ा था मगर अब जाना कि बड़ा अर्थपूर्ण ब्लॉग है.
प्राय: हर मसीहा का आविर्भाव अपने परिवार की बर्बादी की नींव पर ही होता आया है। राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद, कबीर, गांधी, सुभाष, भगत सिंह …..के जीवन-वृतांत हमारे सामने हैं।
जरूरत ऐसे महान उदाहरण प्रस्तुत करने की है जिसमें परिवार की कीमत पर समाज-राष्ट्र-विश्व के कल्याण की दिशा में अग्रसर होने के बजाय उसे साथ लेकर आगे बढ़ा जाए।
what a think