गंगोत्री से गंगा की धारा के साथ बहते पत्थर का ऊबड़-खाबड़ टुकड़ा हज़ारों किलोमीटर की रगड़-धगड़ के बाद शिव बन जाता है, मंगल का प्रतीक बन जाता है। आंख में ज़रा-सा कण पड़ जाए तो हम इतना रगड़ते हैं कि वह लाल हो जाती है। लेकिन सीप में परजीवी घुस जाए तो वह उसे अपनी लार से ऐसा लपटेती है कि मोती बन जाता है। ऐसे ही हैं हमारे रीति-रिवाज़ और त्योहार जो हज़ारों सालों की यात्रा में क्या से क्या बन जाते हैं!
आदि संस्कृति का प्राकृतिक त्योहार। कार्तिक की अमावस्या पर कोने-अंतरे में दीप जलाने का त्योहार दीपावली। तीन-चार हज़ार साल पहले जब खेती ही खेती थी तो इसका मसकद था फसलों को नुकसान पहुंचानेवाले कीट-पतंगो का सफाया। अब भी गावों में खेतों की मेड़ों तक पर दीए जलाए जाते हैं। फिर व्यापार बढ़ने लगा तो इसमें धन की देवी लक्ष्मी की पूजा भी जोड़ दी गई। विघ्न-विनाशक गणेश भी जुड़ गए। न जाने कब इसमें जुआ खेलने का रिवाज़ नत्थी हो गया। कालान्तर में इसमें मिथक जोड़ दिया गया कि भगवान राम के अयोध्या लौटने पर उनका स्वागत दीप जलाकर किया गया था। वहीं, जातक साहित्य कहता है कि गौतम बुद्ध घर छोड़ने के छह साल बाद इसी दिन कपिलवस्तु लौटे तो सारे ग्राम व नगरवासियों ने दीए जलाकर उनके दर्शन किए थे।
समय बीतने के साथ आज न जाने कितने तंत्र-मंत्र दीपावली के साथ जोड़ दिए गए हैं। जैसे पश्चिम में क्रिसमस पर घरों को रोशनी से सजाया जाता है, जैसे चीन में लैटर्न फेस्टिवल की जगर-मगर होती है, वैसे ही हमारी दीवाली भी चमक-दमक का त्योहार बन गई है। शहरों में शोरगुल और रौशनी की चकाचौंध। कस्बे शहरों के लघु संस्करण बन गए। मगर, गावों में अमावस्या की काली घनी रात में छिटपुट जलते दीयों के नेपथ्य में कोई मातमी धुन मन की टीस बन जाती है। बूढ़े मां-बाप को चिंता है कि शाम को बाज़ार गया बड़ा बेटा अभी तक घर क्यों नहीं लौटा। कहीं कुछ अघट तो नहीं घट गया!
हालांकि ऐसी चिंताओं व आशंकाओं के बावजूद भारतीय मन दीपावली पर उमंग से भरा रहता है। हर कोई मानता है कि यश व वैभव की देवी लक्ष्मी उसके घर ज़रूर आएंगी। वह कोना-कोना साफ कर खिड़की-दरवाज़े खुले रखता है। बिजली की लड़ियां या मिट्टी के दीए जलाकर रखता है ताकि लक्ष्मी उसके घर का रास्ता न भूल जाएं। लेकिन इस त्योहार का सदियों से चला आ रहा मूल भाव वह कहीं न कहीं भूल गया लगता है। दरअसल, दीवापली तो बस सामूहिक माहौल बनाती है। बाकी इस दुनिया में जो भी समृद्धि व कीर्ति हासिल होती है, वह केवल और केवल अपने करतब व कर्म से हासिल होती है।
इस बीच देश बराबर बढ़ रहा है। विश्व बैंक ने बिजनेस करने की आसानी के बारे में दुनिया के 190 देशों की सूची में भारत की रैंकिंग 14 पायदान उठाकर 63वीं कर दी है। पिछले साल भारत 23 सीढ़ियां चढ़कर 77वें स्थान पर पहुंचा था। देश की अर्थव्यस्था जल्दी ही तीन लाख करोड़ डॉलर की होने जा रही है। सरकार ने साल 2024 तक इसे पांच लाख करोड़ डॉलर तक ले जाने का लक्ष्य रखा है। अब तो देश की सबसे बड़ी एफएमसीजी (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) कंपनी हिंदुस्तान यूनिलीवर के चेयरमैन संजीव मेहता भी बता रहे हैं कि भारत साल 2032 के आसपास तक 10 लाख डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाएगा।
संदर्भवश बता दें कि बिजनेस करने की आसानी में कम्युनिस्ट देश होने के बावजूद चीन की रैकिंग हमसे 32 पायदान ऊपर 31 स्थान पर है। वहीं. चीन की अर्थव्यवस्था का आकार इस वक्त 15.54 लाख करोड़ डॉलर का है। सोचने-समझने का मुद्दा है कि हम से दो साल बाद 1949 में मुक्त हुआ चीन कैसे इतना आगे पहुंच गया? खैर जो हुआ सो हुआ। कुछ स्वतंत्र रिसर्च रिपोर्ट बताती हैं कि भारत अगले 10-15 साल में बहुत तेज़ी से विकास करेगा और हम 10 लाख करोड़ डॉलर से कहीं ज्यादा बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएंगे। कहा तो यह भी जा रहा है कि भारत के सामने लगभग 2000 साल बाद विकास का ऐसा शानदार मौका पेश हुआ है।
हम यकीनन बतौर देश यह ऐतिहासिक मौका नहीं चूंकेंगे। लेकिन औसत भारतीय का क्या होगा? आईएमएफ की रैंकिग के अनुसार प्रति व्यक्ति आय के मामले में हम दुनिया के 186 देशों में 145वें नंबर पर हैं। अगर देश के आमजन को उठना है तो वह केवल सरकार के भरोसे नहीं रह सकता। नौकरियों के अवसर भले ही कम हों, लेकिन 137 करोड़ आबादी वाले देश में रोजगार के अवसर कभी कम नहीं हो सकते। हम अपने दायरे से निकल दूसरों की ज़रूरतों को पूरा करने का उद्यम करें तो फौरन रोज़गार का नया अवसर पैदा हो जाता है। यही जीवन में सुख व समृद्धि पाने का मूल मंत्र है। यही दीपावली की मूल भावना है। इसे समझ हमें अपने कर्म को धार देने में जुट जाना चाहिए। वैसे भी दीपावली के बाद सोमवार को विक्रम संवत 2076 का पहला दिन है।
(इस लेख का संपादित अंश 27 अक्टूबर 2019 को दैनिक जागरण के मुद्दा पेज़ पर छप चुका है)