इंसान के हाथों में इतनी बरकत है कि वह मिट्टी को सोना और पत्थर को हीरा बना सकता है। यही नहीं, अरबों साल पहले वह बंदर से इंसान बनना ही तब शुरू हुआ, जब उसने औजार बनाए, उन्हें इस्तेमाल करने का हुनर विकसित किया और आपसी संवाद के लिए भाषा ईजाद की। आज भी उसे हुनर, औजार या साधन दे दिए जाएं और उसकी भाषा में उससे सही संवाद किया जाए, महज लफ्फाज़ी न की जाए तो वह सब कुछ हासिल कर सकता है जो उसे चाहिए। फिर गरीबी क्या चीज़ है! आखिर कौन गरीब रहना चाहता है? वैसे भी गरीबी नैसर्गिक नहीं, बल्कि समाज की देन है। इंसान को हुनर, अवसर, साधन व काम करने की आज़ादी मिले तो गरीबी किसी दिन इतिहास की चीज़ बनकर रह जाएगी।
भारत में तो प्रकृति जितनी मेहरबान रही है, प्राकृतिक व मानव संसाधन की जितनी भरमार है और पढ़े-लिखे ही नहीं, अनपढ़ लोगों तक में जिस कदर उद्यमशीलता कूट-कूटकर भरी है कि उसमें यहां गरीबी रहनी ही नहीं चाहिए थी। लेकिन आज़ादी के 73 साल बाद भी वह है, यह कड़वी हकीकत है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) ने दो साल पहले सितंबर 2018 में जारी रिपोर्ट में बताया था कि 2015-16 में भारत में 36.40 करोड़ लोग गरीब थे, वह भी तब, जब देश में 2005-06 से 2015-16 तक के दस सालों में 27.10 करोड़ लोगों को गरीबी से मुक्त करा दिया गया। अन्यथा पहले तो यहां 63.50 करोड लोग गऱीब थे।
इसके बाद 27 दिसंबर 2019 को हमारे नीति आयोग ने अपनी अध्ययन रिपोर्ट जारी कर सबको चौंका दिया कि देश के 28 राज्यों व संघशासित क्षेत्रों में से साल भर पहले की तुलना में 22 राज्यों में गरीबी, 24 राज्यों में भुखमरी और 25 राज्यों में आय विषमता बढ़ गई है। हालांकि नीति आयोग ने यह नहीं बताया कि गरीबी मिटाने में चीन से भी बेहतर कामयाबी हासिल करने के बाद अचानक ऐसा क्यों हुआ। सरकार ने भी नीति आयोग की यह रिपोर्ट कभी स्वीकार नहीं की और न ही स्थितियों को बेहतर बनाने का कोई उपाय किया। ऊपर से मुसीबत यह कि मार्च से दुनिया पर कोरोना का कहर टूट पड़ा। भारत इससे अछूता नही रहा। फिर तो करीब आठ महीने के लॉकडाउन ने देश की कमर तोड़ दी। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) का ताज़ा आकलन है कि कोरोना के कहर से दुनिया के करीब 9 करोड़ लोग चरम गरीबी में धंस गए है, जिसमें से 44.44 प्रतिशत (4 करोड़ लोग) अकेले भारत के हैं।
लेकिन यह कतई निराश होने की बात नहीं है और न ही किसी को दोष देने का कोई फायदा है। इसने हमें सचेत किया है। मौका दिया है कि हम खुद अपनी शक्ति की तरफ देखें। जैसे, जामवंत ने ललकारा कि का चुप साधि रहेहु बलवाना, तब जाकर हनुमान को अपने बल का अहसास हुआ। उसी तरह आज भारत को अपने बल का, अपनी अंतर्निहित सामर्थ्य का अहसास करने का मौका मिला है। हमारी सबसे बड़ी ताकत है कि 65 प्रतिशत आबादी की उम्र 35 साल से कम है। 138 करोड़ उपभोक्ताओं का बाज़ार, 90 करोड़ की युवा शक्ति। बस, इनका समुचित मेल कराने की ज़रूरत है। उसके बाद भारत को अपने बलबूते विश्व की मजबूत अर्थव्यवस्था बनने से कोई नहीं रोक सकता।
सरकार को बताने की ज़रूरत नहीं क्योंकि उसे सब कुछ अच्छी तरह पता है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार देश के डेमोग्राफिक डिविडेंड की बात करते रहते हैं। बड़ी युवा आबादी, उनको प्रशिक्षित व हुनरमंद बनाने का संकल्प। केंद्र में तो बाकायदा अलग से कौशल विकास व उद्यमशीलता मंत्रालय बना दिया गया है। प्रधानमंत्री ने जुलाई 2015 में ही स्किल इंडिया मिशन लॉन्च कर दिया था जिसमें 2022 तक 40 करोड़ लोगों को हुनरमंद करने का लक्ष्य रखा गया है। कौशल विकास मंत्रालय का तंत्र बहुत व्यापक और नीचे तक फैला है। उसके तहत प्रशिक्षण महानिदेशालय (डीजीपी), राष्ट्रीय कौशल विकास एजेंसी (एनएसडीए), नेशनल काउंसिल फॉर वोकेशनल एजुकेशन एंड ट्रेनिंग, राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी), राष्ट्रीय कौशल विकास निधि (एनएसडीएफ), 38 सेक्टर स्किल काउंसिल, 33 राष्ट्रीय कौशल प्रशिक्षण संस्थान (एनएसटीआई), लगभग 15,000 आईटीआई और 187 ट्रेनिंग पार्टनर काम कर रहे हैं। ऊपर से कौशल विकास के लिए विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों, राज्य सरकारों. अंतरराष्ट्रीय संगठनो, उद्योग क्षेत्र व एनजीओ के साथ अनेक स्तरों पर सहयोग। कहने का मतलब कि मौका, मकसद, मिशन और उस पर अमल का पूरा तंत्र तैयार है। नया साल 2021 भी आ ही गया तो शुभस्य शीघ्रम, अशुभस्य कालहरणम्।
(यह लेख 28 दिसंबर 2020 को दैनिक जागरण के मुद्दा पेज़ पर छप चुका है )