छासठ साल कम नहीं होते बंद गांठों को खोलने के लिए। लेकिन नीयत ही न हो, सिर्फ साधना का स्वांग चल रहा हो तो कुंडलिनी मूलाधार में ही कहीं सोई पड़ी रहती है। आज़ादी के बाद देश की उद्यमशीलता को जिस तरह खिलना चाहिए था, वैसा नहीं हुआ। सच कहें तो सायास ऐसा होने नहीं दिया गया। उद्योगों को मंदिर मानने, हाइब्रिड बीजों से आई हरित क्रांति और अर्थव्यवस्था को खोलने के पीछे बराबर एक पराश्रयी सोच काम करती रही। इस परनिर्भर सोच ने देश को अंदर ही अंदर खोखला कर दिया।
हम तो कुछ नहीं हैं। हुजूर! माई-बाप हमारा कल्याण करो। जो गरीब हैं उनकी बात छोड़िए। जो कामयाब हैं उनके अंदर भी भिखारी मानसिकता घर कर गई। नहीं तो क्या वजह है कि करोड़ों कमानेवाले सचिन तेंदुलकर फेरारी कार पर इम्पोर्ट ड्यूटी माफ करने की फरियाद करते हैं और शाहरुख खान अपने बंगले, मन्नत की दो सौ करोड़ रुपए की जमीन सरकारी कृपा से आठ करोड़ में हासिल कर लेते हैं। भावनाओं की राजनीति और भावनाओं का धंधा फलता फूलता रहा। तर्कबुद्धि की भारतीय विरासत निर्वासन झेलती रही।
गांधीजी ने 1909 में ही अपनी किताब हिंद स्वराज में बड़े साफ अंदाज़ में अवाम को प्रभुतासंपन्न बनाने की जो बात कही थी, वह महज दिखावा रह गई। पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बावजूद अब भी 1860 में बना वह कानून लागू है जिसमें गांवों के फैसलों की अंतिम चाभी जिला कलेक्टर के हाथों में है। सत्ता नीचे तक नहीं पहुंच पाई। बीच में ही अटक गई तो दलालों की चांदी हो गई। सत्ता और नेता माई-बाप बन बैठे। उनके हिसाब से चलो तो फलोगे-फूलोगे, नहीं तो उठने नहीं दिया जाएगा। लाइसेंस-परमिट राज ने सरकार से खालिस अपनी उद्यमशीलता पर टिके निजी क्षेत्र को बढ़ने नहीं दिया। अफसर को खिलाओ, मंत्री को खिलाओ, फैक्टरी लगाओ। नहीं तो भटकते रहो। देश से प्रतिभा पलायन होता रहा।
नब्बे के दशक तक खुद सरकार कटोरा लिये कभी अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) तो कभी विश्व बैंक से कर्ज मांगती रही। 1991 तक संकट इतना गहरा गया कि सरकार को मजबूरन बिजनेस के मामले में अपना बहुत सारा दखल बंद करना पड़ा, उदार नीतियां अपनानी पड़ीं। लेकिन उदारीकरण के बीस साल भी स्थिति यह है कि विश्व बैक की सहयोगी संस्था, अंतरराष्ट्रीय वित्त निगम (आईएफसी) की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक भारत बिजनेस करने की आसानी की रैंकिंग में दुनिया के 185 देशों में 132वें नंबर पर है। बिजनेस करारों को लागू करने के मामले में भारत नीचे से एक पायदान ऊपर 184वें स्थान पर है। बिजनेस शुरू करने की बेहतर स्थितियों के मामले में उद्यमशीलता से भरा 124 करोड़ निवासियों का यह देश 172वें नंबर पर है।
आज देश को करीब 85 अरब डॉलर के चालू खाते के घाटे को भरने के लिए कम से कम 25 अरब डॉलर की विदेशी पूंजी चाहिए क्योंकि इसमें से लगभग 60 अरब डॉलर हम पूंजी खाते से पूरा कर लेते हैं। लेकिन पूंजी किसी राष्ट्रप्रेम या कल्याण की भावना से काम नहीं करती। वह तो वहीं जाएंगी जहां बिजनेस करने की ज्यादा सहूलियत होगी। जब उसके सामने दुनिया में भारत से बेहतर 180 देशों का विकल्प हो तो वह आखिर यहां क्यों आएगी? अब तो हमारे बड़े औद्योगिक घराने भी देश से बाहर पूंजी लगाने में ज्यादा सुरक्षा महसूस करने लगे हैं और यह बात उनके व्यवहार से साबित हो चुकी है।
सरकार 25 अरब डॉलर की कमी को विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) को लुभाकर पूरा करना चाहती है। इसके लिए सरकारी बांडों से लेकर शेयर बाज़ार तक में इन्हें जमकर प्रोत्साहन दिया जा रहा है। लेकिन एफआईआई के खेल ने बांड बाज़ार से लेकर शेयर बाज़ार और रुपए तक को हिलाकर रख रखा है। इन क्षेत्रों में वे घरेलू निवेशकों से कहीं ज्यादा बलवान हो गए हैं। सवाल उठता है कि जब हम भारतीय हर साल 17 लाख करोड़ रुपए बचा रहे हैं जिसका एक फीसदी भी एफआईआई पर भारी पड़ेगा, तब हम कपूर की तरह उडनेवाली ऐसी विदेशी पूंजी के मोहताज क्यों बने हुए हैं?
रही बात निर्यात से कमाई करने की तो हमारे वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने खुद मानसून सत्र के पहले ही दिन संसद को बताया कि दुनिया के 80 देशों के साथ हम निर्यात कम और आयात ज्यादा करते हैं। इनमें चीन के अलावा स्विटजरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, सऊदी अरब, इराक, कुवैत, कतर, वेनेजुअला, इंडोनेशिया और नाइज़ीरिया जैसे देश शामिल हैं। सवाल उठता है कि चीन जब अपनी औद्योगिक संरचना और श्रमशक्ति का फायदा उठाकर छोटी-बड़ी तमाम चीजों में दुनिया के बाज़ार पर छा सकता है तो भारत क्यों नहीं? एक छोटा-सा उदाहरण। भारत दुनिया में ग्वार गम का 85 फीसदी उत्पादन करता है और अमेरिका ग्वार गम का इस्तेमाल चट्टानों से शेल गैस निकालने में करता है। लेकिन पिछले दो सालों मों हमने ऐसी नीति अपनाई कि राजस्थान से लेकर हरियाणा व गुजरात में ग्वार की खेती करनेवाले किसान तबाह हो गए।
हम आज़ादी के इतने सालों बाद भी अपनी अर्थव्यवस्था में उद्यमशीलता को उपयुक्त जगह नहीं दे पाए हैं। इसका प्रमाण है कि हमारी अर्थव्यस्था या सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 56.7 फीसदी हिस्सा असंगिठत क्षेत्र से आता है, जबकि 43.3 फीसदी संगठित क्षेत्र से। देश की 92 फीसदी श्रमशक्ति को असंगठित क्षेत्र में रोज़गार मिला हुआ है और 8 फीसदी को संगठित क्षेत्र में। देश के 79.8 फीसदी उद्यम गैर-पंजीकृत हैं। सरकार ने जिस सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योग (एमएसएमई) को प्रोत्साहन देने के नाम पर अलग मंत्रालय तक बना रखा है, उसकी 1.14 करोड़ इकाइयों में से 98.4 लाख यानी 86 फीसदी इकाइयां गैरपंजीकृत हैं। जो 14 फीसदी या 11.5 लाख इकाइयां पंजीकृत हैं, उनमें से 90 फीसदी प्रॉपराइटरी फर्में हैं। अगर नीतियां प्रतिकूल नहीं होतीं तो कोई एमएसएमई इकाई गैर-पंजीकृत नहीं होती।
आज मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर का तकरीबन आधा उत्पादन लघु इकाइयों से आता है। औद्योगिक रोज़गार में 45 फीसदी योगदान इन्हीं छोटी इकाइयों का है। हम जिस सेवा क्षेत्र के तेजी से बढ़ने की बात करते हैं जिसका योगदान जीडीपी में विकसित देशों की तरह 60 फीसदी तक पहुंच चुका है, उसका लगभग 54 फीसदी स्वरोजगार में लगे लोगों का है यानी उनका जो ठेला, खोमचा या ढाबे जैसे धंधे में लगे हैं। यह सारा का सारा तबका अब भी सरकार के नकारात्मक दखल से हलकान है।
वैसे, इतने सारे आंकड़ों को गिनाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि प्रत्यक्षम किम प्रमाणम। हम अपने चारों तरफ आंख उठाकर देखें तो सारी हकीकत खुद-ब-खुद सामने आ जाती है। 2011 की जनगणना के मुताबिक केंद्र और राज्यों को मिलाकर देश में कुल 2.10 करोड़ सरकारी कर्मचारी हैं। इन्हें महंगाई भत्ते से लेकर रिटायर होने के बाद पेंशन तक में इंडेक्सिंग की सुविधा मिली हुई है। बाकी 122 करोड़ भारतवासियों की कमाई को महंगाई बराबर खोखला करती रहती है। उनको सुरक्षित करने की कोई नीति सरकार के पास नहीं है। उसकी नीति बस खैरात बांटते तक सीमित है। इसका एक छोटा-सा उदाहरण कि सरकार ने अब तक खेती-किसानों पर जितना भी खर्च किया है, उसका 80 फीसदी तरह-तरह की सब्सिडी का है, जबकि केवल 20 फीसदी हिस्सा सिंचाई, रिसर्च या दूसरी इंफ्रास्ट्रक्चर सुविधाओं पर लगाया गया है।
अंत में एक और बात कि राष्ट्रीय सैम्पल सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक देश में गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों का अनुपात 2004-05 से लेकर 2011-12 के बीच 37 फीसदी से घटकर 22 फीसदी पर आ गया है। लेकिन आपने गौर किया होगा कि यह करिश्मा दिखानेवाली यूपीए सरकार तक भी इस पर जश्न नहीं मना रही है। कारण, गरीब घट गए तो उनको दी जानेवाली मदद भी घट जाएगी। फिर इस मदद पर फलने-फूलने वाले उस विशाल तंत्र का क्या होगा जिसे हमारे राजनीतिक तंत्र में कार्यकर्ता के नाम पर जाना जाता है। आप खुद चाहें तो देख सकते हैं कि ऐसी तमाम कल्याणकारी योजनाओ का असली मकसद सत्ता के दलालों की लंबी-चौड़ी फौज को ऐश का मौका देना है।