अगर आप ऑप्शन ट्रेडिंग करना चाहते हैं तो सबसे पहले यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि इसमें 88 प्रतिशत प्रायिकता ऑप्शन बेचनेवाले या राइटर के मुनाफा कमाने की होती है और केवल 12 प्रतिशत प्रायिकता इस बात की होती है कि ऑप्शन खरीदनेवाला जीतकर लाभ कमा सके। यह निष्कर्ष किसी के मन की बात नहीं, बल्कि इसे दुनिया के पहले ऑप्शन एक्सचेंज, शिकागो बोर्ड ऑफ ऑप्शन एक्सचेंज (सीबीओई) के करीब डेढ़ सौ साल के डेटा के विश्लेषण से निकाला गया है।
फिर भी वर्तमान हमेशा अतीत के आगे चलता है और ज़रूरी नहीं है कि जो पहले हुआ है, वही आगे भी होता रहे। लेकिन यह बदलाव अपने-आप या किसी ऊपर वाले की कृपा से नहीं होगा। यह काम ट्रेडरों की अपनी बुद्धि, हिकमत व टेक्नोलॉज़ी के इस्तेमाल ही हो सकता है। ऑप्शन ट्रेडिंग में किसी को सफल होना है तो उसे यह विद्या सीखनी होगी जिससे पता चल जाए कि बाज़ार में किसी ऑप्शन का भाव सही चल रहा है या नहीं। अगर भाव किसी भी वजह से गलत चल रहा है तो ट्रेडर इस खामी का फायदा उठाकर मुनाफा कमा सकता है। असल में ऑप्शन ट्रेडिंग में रिटेल ट्रेडरों के मुनाफा कमाने का यही सूत्र है।
किसी ऑप्शन के सही भाव की गणना के लिए अब तक का सबसे लोकप्रिय मॉडल है Black-Scholes Model या ब्लैक-शोल्स म़ॉडल। इस मॉडल के बारे में आप इंटरनेट पर सर्च करके काफी सामग्री हासिल कर सकते हैं। इसमें पांच कारकों के आधार पर इंडेक्स ऑप्शन के भाव की गणना की जाती है। अगर हम किसी स्टॉक के ऑप्शन का भाव निकालना चाहते हैं तो इसमें छठा कारक भी जुड़ जाता है।
ये छह कारक हैं: इंडेक्स या स्टॉक का वर्तमान भाव, ऑप्शन का स्ट्राइक मूल्य, एक्सपायरी में बचा समय (साल का कितना हिस्सा), वोलैटिलिटी, रिस्क-फ्री ब्याज दर और कंपनी द्वारा घोषित लाभांश। इस मॉडल का फॉर्मूला देखने में काफी कठिन लगता है और इसकी गणना है भी थोड़ी कठिन।
लेकिन व्यवहार में इतनी कठिन गणना करने की ज़रूरत नहीं है। आप इंटरनेट से एक्सेल शीट पर इसकी गणना का प्रारूप डाउनलोड करके रख रखते हैं। फिर उसमें आप सारा डेटा डालकर मिनटों में कॉल या पुट ऑप्शन के भाव निकाल सकते हैं। इसमें एक ही डेटा को लेकर मुश्किल आ सकती है। वो है वोलैटिलिटी। वैसे तो यह इंडेक्स या स्टॉक के दैनिक भावों के उतार-चढ़ाव के डेटा का स्टैंडर्ड डेविएशन होता है जिसे आप एक्सेल के STDEV फंक्शन में डेटा डालकर निकाल सकते हैं। फिर उसका स्क्वायर या वर्ग ही वोलैटिलिटी होता है। वैसे इसका आंकड़ा एनएसई भी देता है। एनएसई में 9 प्रमुख सूचकांकों और 144 स्टॉक्स में डेरिवेटिव ट्रेडिंग होती है। आप एनएसई की साइट पर जाकर इसकी पूरी जानकारी हासिल कर सकते हैं।
ब्लैक-शोल्स फॉर्मूले या मॉडल में रिस्क-फ्री ब्याज दर भी कौन-सी लेंगे, इसको लेकर भी उलझन हो सकती है। रिजर्व बैंक की रेपो दर या सरकारी बांडों की सालाना ब्याज दर। लेकिन एनएसई ने ज़रूर इसका कोई मानक बनाया होगा। हम भविष्य में पता लगाकर इसे स्पष्ट कर देंगे। आप भी एनएसई की साइट पर इसकी छानबीन कर सकते हैं। वैसे, ब्याज दर से ऑप्शन के भाव पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। इसलिए फॉर्मूले में दस साल के सरकारी बांडों की यील्ड दर डालकर काम चलाया जा सकता है।
बता दें कि ब्लैक-शोल्स म़ॉडल को तीन शिक्षाविदों – फिशर ब्लैक, माइरॉन शोल्स और रॉबर्ट मेरटन ने विकसित किया था। इसका विचार 28 साल के ब्लैक ने सबसे पहले 1969 में पेश किया। उऩ्होंने शोल्स के साथ मिलकर 1973 में अपने प्रसिद्ध शोधपत्र, The Pricing of Options and Corporate Liabilities का पहला ड्राफ्ट प्रकाशित किया। इस प्रपत्र में पेश की गई धारणाओं ने व्यवहार में धमाल मचा दिया। इसी का कमाल है कि 1997 में मेरटन और शोल्स को इकनॉमिक्स का नोबेल पुरस्कार दिया गया। इससे दो साल पहले 1995 में फिशर ब्लैक का निधन हो चुका था तो उन्हें इस सम्मान में शामिल नहीं किया जा सका।
आज ब्लैक-शोल्स मॉडल फाइनेंस की दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण और सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जानेवाली अवधारणा है। यह ऑप्शन का भाव निकालने के तमाम मॉडलों का आधार है। हम इस मॉडल को आगे गहराई से समझने की कोशिश करेंगे। साथ ही यह भी जानेंगे कि ऑप्शन के सही भाव निकालने के दूसरे मॉडल कौन-से हैं।