रीयल्टी या ब्रोकिंग कंपनियों को बैंक लाइसेंस नहीं, रिजर्व बैंक का प्रस्ताव

रिजर्व बैंक ने निजी कंपनियों या उद्योग समूहों को बैंक खोलने की इजाजत देने की तैयारी कर ली है। लेकिन अगर किसी भी कंपनी या समूह की आय या आस्तियों का 10 फीसदी या इससे ज्यादा हिस्सा रीयल एस्टेट या ब्रोकिंग के धंधे से आता है तो उसे बैंक खोलने की इजाजत नहीं होगी। रिजर्व बैंक ने सोमवार को निजी क्षेत्र को नए बैंकों को लाइसेंस देने के लिए जारी प्रारूप दिशानिर्देशों में यह प्रावधान किया है। 31 अक्टूबर तक इस प्रारूप पर सभी पक्षों की राय जानने के बाद अंतिम दिशानिर्देश बनाए जाएंगे। उसके बाद संसद में बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट, 1949 में जरूरी संशोधन के बाद इन्हें लागू किया जाएगा।

लेकिन इनसे एक बात तो साफ हो गई है कि इंडिया बुल्स, एडेलवाइस या इंडिया इनफोलाइन जैसी कंपनियों को बैंक खोलने का लाइसेंस नहीं मिल सकता। वहीं, आईएफसीआई जैसी कंपनियों के बैंक लाइसेंस पाने की संभावना काफी बलवती हो गई है। बता दें कि देश में 2004 के बाद से ही कोई नया बैंक लाइसेंस नहीं जारी किया गया है, जबकि देश की लगभग 60 फीसदी आबादी अब भी बैंकिंग सेवाओं से महरूम है। इसलिए सरकार नए बैंकों को लाइसेंस देना चाहती है। इस बाबत वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी पिछले वित्त वर्ष 2010-11 के बजट भाषण में ही घोषणा कर चुके हैं।

रिजर्व बैंक ने प्रारूप दिशानिर्देशों में कहा कि निजी क्षेत्र की कम से कम दस साल का सफल ट्रैक-रिकॉर्ड रखनेवाली कंपनियां नए बैंक खोल सकती हैं। लेकिन अगर किसी कंपनी या समूह का 10 फीसदी धंधा भी पिछले तीन सालों में रीयल एस्टेट कंस्ट्रक्शन या ब्रोकिंग गतिविधियों से आया है तो वह बैंकिंग लाइसेंस पाने का पात्र नहीं होगा।

दिशानिर्देशों में प्रस्ताविक कुछ अन्य शर्तें इस प्रकार हैं: नए बैंक के लिए न्यूनतम आवश्यक पूंजी 500 करोड़ रुपए है। वास्तविक पूंजी प्रवर्तकों के बिजनेस प्लान से तय होगी। पहले पांच सालों में नए बैंक में विदेशी इक्विटी निवेश 49 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता। उसके बाद तत्कालीन नीतियों के हिसाब से फैसला किया जाएगा। निजी क्षेत्र के बैंकों में विदेशी पूंजी निवेश की वर्तमान सीमा 74 फीसदी है।

नए बैंकों को लाइसेंस मिलने के दो साल के भीतर खुद को स्टॉक एक्सचेंजों में लिस्ट करा लेना होगा। दूसरे शब्दों में इससे पहले उन्हें अपना आईपीओ (शुरुआती पब्लिक ऑफर) ले आना होगा। बैंक का गठन प्रवर्तकों के पूर्ण स्वामित्व वाली नॉन-ऑपरेटिव होल्डिंग कंपनी (एनओएचसी) के जरिए किया जाएगा। यह होल्डिंग कंपनी रिजर्व बैंक के पास गैर-बैंकिंग फाइनेंस कंपनी (एनबीएफसी) के रूप में पंजीकृत होगी जो बैंकिंग समेत प्रवर्तकों की दूसरी वित्तीय गतिविधियों का संचालन करेगी।

लाइसेंस मिलने के पांच साल तक नए बैंक की कम से कम 40 फीसदी चुकता पूंजी या इक्विटी एनओएचसी के पास होनी चाहिए। इस 40 फीसदी से ज्यादा उसकी जो भी इक्विटी हिस्सेदारी होगी, उसे दस साल के भीतर 20 फीसदी और बारह साल के भीतर 15 फीसदी पर ले आना होगा। यानी, नए बैंक में प्रवर्तकों की होल्डिंग कंपनी की इक्विटी हिस्सेदारी लाइसेंस मिलने के दस साल बाद 60 फीसदी और बारह साल बाद 55 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकती।

यह भी कहा गया है कि बैंक प्रवर्तकों की किसी एक कंपनी को अपनी नेटवर्थ (इक्विटी + रिजर्व) के 10 फीसदी से ज्यादा और पूरे समूह को 20 फीसदी से ज्यादा ऋण नहीं दे सकता। बैंक के बोर्ड में कम से कम 50 फीसदी निदेशक स्वतंत्र होने चाहिए। वर्तमान एनबीएफसी में अगर जरूरी पात्रता है तो वह खुद को नए बैंक में तब्दील कर सकती है या नए बैंक का प्रवर्तन कर सकती है। गौरतलब है कि इस समय रिलायंस कैपिटल से लेकर बजाज फाइनेंस, आईएफसीआई, टाटा फाइनेंस, श्रीराम ट्रांसपोर्ट, महिंद्रा एंड महिंद्रा फाइनेंशियल, श्रेई इंफ्रास्ट्रक्चर जैसी तमाम एनबीएफसी बैंकिंग लाइसेंस पाने का ख्वाब पाले हुए हैं।

लेकिन रिजर्व बैंक ने इस प्रारूप दिशानिर्देशों में साफ कर दिया है कि नए बैंकों को कम से कम अपनी 25 फीसदी शाखाएं बिना बैंकों वाले ग्रामीण केंद्रों में खोलने होंगी, यानी ग्रामीण अंचलों की उन जगहों पर जहां की आबादी 2001 की जनगणना के मुताबिक 9999 तक (10,000 से कम) है। असल में सरकार वित्तीय समावेश के मकसद से ही नए बैंकों को लाइसेंस देना चाहती है। नहीं तो शहरी आबादी और कॉरपोरेट क्षेत्र की जरूरतों को पूरा करने के लिए देश में बैंकों की कमी नहीं है।

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