यूपीए सरकार भले ही ढिंढोरा पीटती रहे कि उसने कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रखी है, लेकिन बजट 2012-13 के दस्तावेजों से साफ है कि वह केंद्रीय आयोजना व्यय का महज 2.71 फीसदी हिस्सा कृषि व संबंधित गतिविधियों पर खर्च करती है। नए वित्त वर्ष 2012-13 में कुल केंद्रीय आयोजना व्यय 6,51,509 करोड़ रुपए का है। इसमें से 17,692.37 करोड़ रुपए ही कृषि व संबंद्ध क्रियाकलापों के लिए रखे गए हैं। इन क्रियाकलापों में फसलों से लेकर पशुपालन, डेयरी, मछली पालन, प्लांटेशन, खाद्य भंडारण, सहकारिता व अन्य कार्यक्रम शामिल हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सोमवार को लोकसभा में राष्ट्रपति के भाषण पर धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कहा, “हमारे जैसे विशाल व जटिल देश में, जिसकी 65 फीसदी श्रमशक्ति किसान हों, वहां भारत की कृषि की दशा देखकर संसद व सरकार को चिंतित हो जाना अपरिहार्य है।” आगे उन्होंने बताया कि उनकी सरकार ने कृषि में सरकारी निवेश को बढ़ाने और कृषि के विकास को उच्च प्राथमिकता दे रखी है।
लेकिन बजट दस्तावेजों से साफ हो जाता है कि मनमोहन सिंह जैसा ‘ईमानदार’ शख्स भी कितना बड़ा झूठ कितनी सफाई से बोल जाता है। कोई कह सकता है कि कृषि के आयोजना व्यय के साथ ग्रामीण विकास और सिंचाई व बाढ़ नियंत्रण के लिए निर्धारित खर्च को भी शामिल किया जाना चाहिए। नए साल में ग्रामीण विकास का परिव्यय 40,763.45 करोड़ रुपए और सिंचाई व बाढ़ नियंत्रण का खर्च 1275 करोड़ रुपए तय किया गया है। कृषि व इन दोनों मदों को मिलाकर कुल केंद्रीय आयोजना खर्च 59730.82 करोड़ रुपए निकलता है। ग्रामीण इलाकों से जुड़ा ये सारा खर्च केंद्र सरकार के कुल आयोजना व्यय का केवल 9.17 फीसदी निकलता है।
स देश की 65 फीसदी श्रमशक्ति गांवों में लगी हो, 70 फीसदी से ज्यादा आबादी की आजीविका जहां से चलती हो, उस विशाल क्षेत्र को केंद्रीय आयोजना व्यय का महज 9.17 फीसदी देना सरकार की नीयत को साफ कर देता है। इस खर्च में मनरेगा जैसी रोजगार योजनाओं के लिए रखे गए 33,000 करोड़ रुपए भी शामिल हैं।
जिस देश में कभी जय जवान, जय किसान का नारा दिया जाता था, वहां किसान तो किनारे हो गए हैं, जबकि जवानों के नाम पर हथियारों की लॉबी मौज कर रही है। इस बार रक्षा व्यय 1,93,407 करोड़ रुपए रखा गया है जो कृषि व संबंद्ध क्रियाकलापों के लिए निर्धारित खर्च का 10.93 गुना है। 13 लाख सैन्यकर्मियों पर 80 करोड़ किसानों की बनिस्बत दस गुना से ज्यादा खर्च! सिर्फ इसलिए वे सरकार के कर्मचारी हैं और किसानों को भगवान भरोसे छोड़ रखा गया है!! यह सच है कि जवानों की कुर्बानी और उनका मूल्य हमेशा दिल के करीब रखा जाना चाहिए। लेकिन कभी यह भी सोचना चाहिए कि आज भारत चीन को भी पीछे छोड़कर दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश कैसे बन गया है?
कोई कह सकता है कि इस बार कृषि ऋण का लक्ष्य सरकार ने 4.75 लाख करोड़ रुपए से बढ़ाकर 5.75 लाख करोड़ रुपए कर दिया है और इस पर किसानों को ब्याज में सब्सिडी भी दी जाएगी। लेकिन यह तो बैंकों का धंधा है। इससे सरकार का क्या लेना-देना। यह भी सच है कि वित्त मंत्री ने कृषि मंत्रालय का आवंटन 18 फीसदी बढ़ाकर 20,208 करोड़ रुपए कर गिया है। लेकिन यह तो मंत्रालय की नौकरशाही के लिए है, किसानों के लिए नहीं। इस बार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन पर निर्धारित व्यय 42 फीसदी बढ़ाकर 1780 करोड़ रुपए कर दिया गया है। लेकिन मात्र 530 करोड़ रुपए की वृद्धि राष्ट्र को क्या खाद्य सुरक्षा दे सकती है?
असल में समस्या की जड़ में यह है कि सरकार किसानों को किसी तरह जिंदा भर रखना चाहती है। वो जिस तरह उद्योग व सेवा क्षेत्र की लाभप्रदता के लिए चिंतित है, वैसा कोई सरोकार उसका किसानों व खेती के प्रति नहीं है। यही नहीं, वह आकस्मिता आने पर भी उनकी मदद करने को तैयार नहीं है। यह इस तथ्य से झलकता है कि नए साल में फसल बीमा स्कीमों पर निर्धारित खर्च 1.2 फीसदी घटा दिया गया है। उर्वरक सबसिडी का हल्ला राजकोषीय घाटे और कंपनियों की लाभप्रदता को ध्यान में रखते हुए उठाया जाता है। लेकिन सरकार को परवाह नहीं कि इसके हट जाने से किसानों की लाभप्रदता कितनी घट जाती है। नए साल के बजट में उर्वरक सब्सिडी 6000 करोड़ रुपए घटा दी गई है। तालियां बजाइए। लेकिन इससे पहले अपने भीतर जरा-सा झांककर देख लीजिए कि इतनी अमानवीय क्रूरता आपके अंदर कहां से आई है। सरकारी प्रचार और अपनी अज्ञानता में इतने अंधे तो मत बनिए कि अपनी माटी और अन्नदाता को भी भूल जाइए।