पहले जब तक गांव से ज्यादा जुड़ाव था, नौकरीपेशा तबके को जीवन बीमा की जरूरत नहीं लगती थी। भरोसा था कि जमीन-जायदाद के दम पर हारी-बीमारी से लेकर बुढ़ापे तक का इंतजाम हो जाएगा। लेकिन गांव से रिश्ता टूटता गया और ज्यादातर जोतों का आकार घटकर दो-ढाई एकड़ से कम रह गया तो अब हर कोई जीवन बीमा की सोचने लगा है। मगर, आंख पर पट्टी बांधकर। जैसे, मेरे एक हिंदी पत्रकार मित्र हैं। अंग्रेजी-हिंदी दोनों भाषाओं में हर दिन छपनेवाले बिजनेस अखबार के मुंबई प्रतिनिधि हैं। हाल में मिले तो बताया कि अपना दस लाख का बीमा करवाया है और पत्नी का पंद्रह लाख का करवा दिया। मैंने पूछा – पत्नी का क्यों? बोले – बहुत दिन से कह रही थी कि मेरे लिए कुछ करते नहीं तो मैने भी उसे प्रसन्न कर दिया।
मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की तो बोले कि आप लोग किताबी बातें करते हैं। जमीनी हकीकत नहीं समझते। शायद वे अपने तईं सही ही कह रहे थे। किसी भी द्रव को जिस बर्तन में डालेंगे, वह उसी का आकार हासिल कर लेगा। अपने यहां जीवन बीमा भी सामाजिक मूल्यों व मान्यताओं के हिसाब से आकृति ले रहा है। लेकिन जीवन बीमा न तो कोई द्रव है और न ही हमारे समाज की पुरानी मान्यताओं से इसका कोई लेना-देना है। यह तो आज की जरूरत है और आज की समस्या का समाधान है।
पहली बात गांठ बांध लें कि हर व्यक्ति को जीवन बीमा कराने की जरूरत नहीं है। न ही हर कमानेवाले व्यक्ति के लिए बीमा कराना जरूरी है। आपको बीमा तभी कराना चाहिए, जब आप पर आर्थिक रूप से निर्भर लोग हों। अगर आप निर्वंश हैं, शादीशुदा नहीं है, हरियाणवी अंदाज़ में कहें तो छड़े हैं, दूसरे शब्दों में आपके न रहने से आर्थिक रूप से किसी पर फर्क नहीं पड़ता तो आपको जीवन बीमा कराने की कोई जरूरत नहीं है। हां, भविष्य में घर-परिवार बसाने की सोच रहे हों, तब अलग बात है। अगर आप बेरोज़गार हैं, आपकी कोई स्वतंत्र कमाई नहीं है तब भी आपका बीमा कराना निरर्थक है। इसलिए हमारे पत्रकार मित्र को अपनी पत्नी का जीवन बीमा कराने की कोई जरूरत नहीं थी।
हो सकता है कि भावनात्मक रूप से आप पर बहुत सारे लोग निर्भर हों। लेकिन आज के जमाने में आपको असली फिक्र उनकी करनी होती है जो आर्थिक रूप से आप पर निर्भर हैं। उनकी जिम्मेदारी आप पर है और आपको उनके जीवन के लक्ष्यों को हासिल करने का इंतज़ाम करना होता है। आपको सोचना होता है कि जिम्मेदारियां निभाने के दौरान आप गुजर गए तो उन्हें कैसे पूरा किया जाएगा। संयुक्त परिवार के जमाने में भाई-बहन, मां-बाप इसका बोझ उठा लेते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है। बहुत मुमकिन है कि आपके न रहने पर आपके बीवी बच्चों को, जो आपकी ज़िंदगी हैं, जिनसे आप बेहद प्यार करते हैं, दर-दर की ठोकर खानी पड़े। फिर भारत में यूरोप व अमेरिका या अन्य विकसित देशों की तरह सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था भी नहीं है। इसलिए हारी-बीमारी से लेकर पढ़ाई-लिखाई और शादी-ब्याह तक का इंतज़ाम हमें ही करना होता है। जीवन के साथ भी, जीवन के बाद भी।
एक बात और। आप जितना भी कमाते हैं, उसमें आपका अपना ही नहीं, औरों का भी अंश होता है। साथ ही उसमें आज का ही, भविष्य का हिस्सा भी होता है। हर एक दिन जैसे नहीं होते। कल क्या होगा, कोई नहीं जानता। यह जीवन का अटल नियम है। इसलिए हमें आज ही भविष्य की योजना बनानी पड़ती है और उसके लिए धन का नियोजन करना पड़ता है। इसे ही फाइनेंशियल प्लान या वित्तीय योजना कहते हैं। इसका पहला और अपरिहार्य तत्व है जीवन बीमा।
आपका जीवन आपके घर-परिवार वालों के लिए अमूल्य है। फिर भी आपको अपने जीवन का मूल्य निकालना पड़ता है। इस मूल्य को आमतौर पर आपकी सालाना कमाई का दस गुना माना जाता है ताकि आपके न रहने पर आपके आश्रितों का जीवन कम से कम दस साल तक आर्थिक रूप से उसी तरह चलता रहे, जैसा आपके रहने पर चल रहा था। मान लीजिए, आपका सालाना वेतन पांच लाख रुपए है तो आपको 50 लाख रुपए का बीमा करा लेना चाहिए। हालांकि यह रकम आप अपने हिसाब से घटा-बढ़ा सकते हैं। सही वक्त पर कराएंगे तो इसका प्रीमियम भी ज्यादा नहीं आता।
जीवन बीमा का विकासक्रम: क्या सभी जीवन बीमा पॉलिसियां पॉलिसीधारक की मृत्यु के बाद ही भुगतान करती हैं? क्या इनके दूसरे प्रकार भी हैं? असल में जीवन बीमा कई रूपों में मिलती है। आइए देखते हैं कि ये रूप क्या हैं और इनके क्या मतलब सधते होते हैं।
टर्म प्लान: यह शुद्ध सुरक्षा का पहला रूप है। इसमें पॉलिसीधारक की मृत्यु के बाद ही बीमा कंपनी भुगतान करती है। यह है असली बीमा। इसमें सबसे ज्यादा भुगतान पाने के लिए सबसे कम प्रीमियम देना पड़ता है। इसमें आप जो भी प्रीमियम देते हैं, वह पूरा का पूरा आपके जीवन का बीमा करने में चला जाता है। यानी, आपके न रहने पर आपकी जिम्मेदारियों का खर्च का इंतजाम करता है टर्म प्लान। अगर आप पॉलिसी में तय वक्त से ज्यादा जीते हैं तो आपको कोई भुगतान नहीं मिलता। टर्म प्लान में आपकी जमा रकम से कोई निवेश नहीं किया जाता, इसलिए इसको शुद्ध बीमा पॉलिसी कहते हैं। टर्म प्लान को हम ऑनलाइन भी ले सकते हैं और एजेंट के जरिए ऑफलाइन भी। दोनों का अपना नफा-नुकसान है।
एनडाउमेंट पॉलिसी: बहुत सारे लोगों को लगता है कि वे पॉलिसी में तय वक्त से ज्यादा जिएंगे। इसलिए टर्म प्लान में दिया गया प्रीमियम उन्हें धन की बरबादी लगता है। इस सोच को ध्यान में रखते हुए बीमा कंपनियां एनडाउमेंट पॉलिसी पेश करती हैं। इसका प्रीमियम हमेशा टर्म प्लान से ज्यादा होता है। इसमें दिए गए प्रीमियम का एक हिस्सा बीमा कंपनी आपके जीवन के सुरक्षा कवर के लिए रख देती है, जबकि बाकी बचा हिस्सा वह सुनिश्चित आय वाले माध्यमों (एफडी, बांड वगैरह) में लगा देती है। इस तरह जो भी रकम एकट्ठा होती है, उससे मृत्यु की दशा में पॉलिसीधारक के आश्रित को बीमित धन मिल जाता और पॉलिसी में मुकर्रर अवधि से ज्यादा जीवित रहने पर पॉलिसीधारक को एक निश्चित रकम मिल जाती है जो अमूमन कुल जमा प्रीमियम पर हर साल पांच फीसदी का रिटर्न जोड़कर बनती है। इस तरह पॉलिसी कराने को संतोष हो जाता है कि उसका दिया हुआ प्रीमियम बेकार नहीं गया। हालांकि जीवन बीमा के लिए प्रीमियम देने का मूल मकसद यह नहीं होना चाहिए। हमें बीमा और निवेश को अलग करके देखने की आदत डालनी चाहिए।
मनी बैक पॉलिसी: जहां टर्म प्लान उन लोगों को ध्यान में रखकर बनाया गया है जो शुद्ध जीवन बीमा चाहते हैं और एनडाउमेंट प्लान उनका मन रखता है जो पॉलिसी के बाद जीवित रहने पर अपनी रकम चाहते हैं, वहीं बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो पॉलिसी चलने के दौरान भी कुछ न कुछ पाते रहना चाहते हैं। उन्हें तसल्ली नहीं रहती। वे पॉलिसी में तय वक्त तक इंतज़ार नहीं करना चाहते। ऐसे लोगों की जरूरत को पूरा करने के लिए बीमा कंपनियों ने मनी बैक पॉलिसी पेश की है। इसमें बीमित व्यक्ति के जीवित रहने के दौरान निश्चित अंतराल पर कंपनी की तरफ से भुगतान किया जाता है। मसलन, कंपनी आपको पॉलिसी की मुकर्रर अवधि के दौरान पांच, दस और पंद्रह साल पर कुछ रकम दे सकती है। इसमें भी पॉलिसीधारक का रिटर्न मोटे तौर पर एनडाउमेंट पॉलिसी की तरह पांच फीसदी सालाना होता है। मनी बैक भी एनडाउमेंट की तरह बीमा और सुरक्षित निवेश के मिश्रण वाली पॉलिसी है। दरअसल आपको खुद अपनी स्थिति के अनुसार तय करना होता है कि आपके लिए टर्म, एनडाउमेंट या मनी बैक प्लान में से कौन-सी पॉलिसी मुफीद है।
यूलिप और यूएलपीपी: एनडाउमेंट और मनी बैक पॉलिसियों का प्रीमियम सुरक्षित प्रपत्रों में लगाया जाता है। इसलिए उन पर रिटर्न भी बहुत कम मिलता है। लेकिन बहुत से लोग चाहते हैं कि उन्हें जमा कराए गए प्रीमियम पर शेयर बाजार जैसा रिटर्न मिले। इस सोच और चाहत को पूरा करने के लिए बीमा कंपनियों ने यूनिट लिंक्ड इंश्योरेंस प्लान (यूलिप) और यूनिट लिंक्ड पेशन प्लान (यूएलपीपी) पेश कर दिए। इनमें प्रीमियम का बड़ा हिस्सा इक्विटी या शेयर बाजार में लगाया जाता है। हालांकि म्यूचुअल फंडों की तरह यहां भी बैलेंस्ड फंड और ग्रोथ जैसे विकल्प रहते हैं।
दिक्कत यह हुई कि शुरुआती सालों में इनमें एजेंट का कमीशन और दूसरे शुल्क काफी ज्यादा रखे गए। होता यह था कि पहले तीन सालों में जमा प्रीमियम का आधे से ज्यादा हिस्सा एजेंट या कंपनी को चला जाता था। इस पर काफी हंगामा हुआ। पॉलिसीधारक अपनी रकम के ठीक से न बढ़ने पर दुखी हुए। खैर, अब बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) ने नियम बदल दिए हैं, कमीशन की सीमा बांध दी है तो फिर से इनका आकर्षण बढ़ रहा है।
अंत में बस इतना कि आज की दुनिया में हर कोई धंधा करने बैठा है, कल्याण नही। वह आपके धन से कमाता है और उसी का एक अंश आपको देता है। बीमा कंपनियां भी यही करती हैं। सौ लोगों ने बीमा कराया, बीस लोग मुकर्रर मीयाद में मर गए तो बाकी 80 लोगों का प्रीमियम कंपनी के खर्चों व मृत लोगों को ज्यादा बीमा कवर देने में काम आ गए। बीमा कंपनी कमाएगी, तभी हमें दे पाएगी। अपने यहां साल 2000 के बाद बीमा कारोबार निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया है। लेकिन ज्यादातर निजी कंपनियां घाटे में चल रही हैं तो इसकी बड़ी वजह यह है कि भारतीय परिस्थिति के अनूरूप वे अभी तक सही बिजनेस मॉडल नहीं बना पाई हैं। अब भी जीवन बीमा के लिए अगर लोग बोलते हैं कि एलआईसी करा लिया है तो पता चलता है कि सरकारी कंपनी भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) की कितनी ज्यादा साख है। उसका ब्रांड इतना बड़ा है कि धंधे में वह अकेली ही सारी निजी जीवन बीमा कंपनियों पर भारी पड़ती है।
बेहद उपयोगी और ज्ञानवर्द्धक जानकारी। धन्यवाद।
जानकारी तो लाजवाब है… एक और पोस्ट डालो… जिससे टर्म प्लान, एनडाउमेंट पॉलिसी, मनी बैक पॉलिसी और अच्छे से समझ आये… और किसी एक पर मन बनाया जाये