अपने यहां रोज़गार पर स्थिति बड़ी कारुणिक है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में, “न हो क़मीज़ तो पांवों से पेट ढक लेंगे, कितने मुनासिब हैं ये लोग इस सफ़र के लिए।” यहां बिरले लोग ही बताते हैं कि उनके पास कोई रोज़गार नहीं है। जिससे भी पूछो, वो बताएगा कि वो कोई न कोई काम-धंधा कर रहा है। गांवों में महिलाओं से पूछो तो वे बताती है कि घर के कामकाज में हाथ बंटाती हैं। सरकारी सर्वेक्षण में इसका फायदा उठाया जाता है। उसमें ‘अनपेड फेमिली लेबर’ की नई श्रेणी ही बना दी गई है। अमेरिका में हर महीने की पांच तारीख तक पिछले महीने तक के रोज़गार का डेटा आ जाता है और बेरोज़गारी को दूर करना उनकी आर्थिक व मौद्रिक नीति की सबसे बड़ी प्राथमिकता होती है। वहीं, अपने यहां बेरोज़गारी का सरकारी आंकड़ा कभी अद्यतन नहीं होता। डेटा के इस अंधेरे का फायदा उठाकर सरकार और उसके अर्थशास्त्री अंधेरगर्दी करते रहते हैं। सरकार के एक बिके हुए अर्थशास्त्री हैं। भारत नहीं, ब्रिटेन में रहते हैं। पहले प्रधानमंत्री मोदी की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य थे। अब बाहर हैं। उन्होंने हाल ही में एक लेख में बताया कि यूपीए शासन में 2004 से 2011 तक कृषि से बाहर सालाना केवल 10 लाख रोज़गार पैदा हुए, वहीं मोदीराज आते ही इनकी संख्या 80 लाख से बढ़ते-बढ़ते 2019-20 से अब तक हर साल 1.6 करोड़ हो चुकी है। अब शुक्रवार का अभ्यास…
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