मरने की कगार पहुंच गए इंटरेस्ट रेट फ्यूचर्स (आईआरएफ) या ब्याज दर वायदा कारोबार में सरकार ने एक बार फिर जान डालने की कोशिश की है। रिजर्व बैंक और सेबी से सर्कुलर जारी कर 91 दिनों के ट्रेजरी बिलों में आईआरएफ सौदों की इजाजत दे दी है। हालांकि इसका सैद्धांतिक फैसला रिजर्व बैंक ने 21 अप्रैल को पेश चालू वित्त वर्ष 2010-11 की मौद्रिक नीति में ही कर लिया था। सोमवार को देर शाम जारी सर्कुलर में 91 दिनों के ट्रेडरी बिलों के आईआरएफ सौदों का पूरा ब्यौरा दे दिया गया है। इसे रिजर्व बैंक और सेबी की स्थाई तकनीकी समिति ने तैयार किया है।
अभी तक दस साल की परिपक्वता वाले सरकारी बांडों में ही आईआरएफ सौदों की इजाजत है। लेकिन अब 91 दिनों के ट्रेजरी बिलों में भी यह सुविधा मिल गई है। दोनों में अंतर इतना है कि जहां दस साल के सरकारी बांडों में फिजिकल सेटलमेंट है, वहीं 91 दिनों के ट्रेजरी बिलों में कैश सेटलमेंट होगा। लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि अगस्त 2009 में शुरू किए गए आईआरएफ में कारोबार लगभग सूख चुका है।
पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी द्वारा कल ही जारी की गई फरवरी 2011 की बुलेटिन के अनुसार, पूरे जनवरी माह में आईआरएफ का कारोबार नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में मात्र 30 लाख रुपए रहा है। इससे पहले दिसंबर 2010 में भी यह मात्रा 8 करोड़ रुपए थी। यानी, महीने भर में इसका कारोबार 96 फीसदी गिर गया। फरवरी 2010 में इसका कारोबार 57 करोड़ रुपए था। मार्च 2010 में यह 111 करोड़ रुपए रहा था। उसके बाद तो यह गिरता ही गया है।
असल में शुरुआत से ही इसके डूबने के संकेत मिलने लगे थे। 31 अगस्त 2009 में जब आईआरएफ में कारोबार शुरु हुआ था तो उस दिन कारोबार 267.31 करोड़ रुपए का था। चार हफ्ते बाद 25 सितंबर तक यह घटकर 122.57 करोड़ पर आ गया। इसके एक दिन पहले 24 सितंबर को यह मात्र 17.66 करोड़ का था। उस वक्त आईआरएफ की इतनी सुस्त चाल के बार में जब सेबी के तत्कालीन चेयरमैन सी बी भावे से पूछा गया था तो उनका कहना था कि किसी भी नए प्रपत्र के बार में दो-तीन हफ्ते में कोई राय नहीं बनाई जा सकती।
लेकिन बाद में भी आईआरएफ में कारोबार डूबता ही चला गया। अब जनवरी 2011 में यह 30 लाख रुपए तक जा पहुंचा है। नियमानुसार इसमें बैंक खुद भाग ले सकते हैं, लेकिन वे अपने ग्राहकों की तरफ से ट्रेडिंग नहीं कर सकते। इन सौदों में विदेशी फंडों (एफआईआई) व अनिवासी भारतीयों से लेकर बीमा व अन्य कंपनियों तक को भाग लेने की इजाजत है। न्यूनतम लॉट दो लाख रुपए का है। इसलिए इसमें होमलोन के आम ग्राहक भी जरूरी शर्तों को पूरा करने के बाद हिस्सा ले सकते हैं। इनकी ट्रेडिंग स्टॉक एक्सचेंज के करेंसी डेरिवेटिव सेगमेंट में हो रही है। लेकिन एफआईआई ने शुरू से ही इनकी तरफ झांका तक नहीं। आईआरएफ में बैंकों या बीमा कंपनियों ने भी खास रुचि नहीं दिखाई है।
आईआरएफ की नाकामी साल भर पहले ही उजागर होने लगी थी। इसी के मद्देनजर 21 अप्रैल 2010 को पेश मौद्रिक नीति में प्रस्ताव रखा गया था कि आईआरएफ में 5 साल व दो साल की सरकारी प्रतिभूतियों के साथ ही 91 दिवसीय ट्रेजरी बिलों पर भी आधारित कांट्रैक्ट शुरू किए जाएं। आईआरएफ का मकसद यह है कि ब्याज दरों के उतार-चढ़ाव से जुड़े जोखिम को कम किया जा सके।
बता दें कि आईआरएफ को पहली बार जून 2003 में भी शुरू किया गया था। लेकिन धीरे-धीरे इसका पूरा बाजार बेजान हो गया। 2009 में दोबारा की गई शुरुआत का भी हश्र पहले जैसा हो गया है। इसीलिए आईआरएफ सौदों में 91 दिनों के ट्रेजरी बिलों को शामिल कर लिया गया है।