स्विटजरलैंड के जिस बदनाम बैंक, यूबीएएस एजी की भारत में इसलिए थू-थू होती है कि उसने यहां के तमाम लोगों का काला धन अपने यहां जमा कर रखा है, उसकी शाखा भारत सरकार की अनुमति पिछले तीन सालों से मजे में काम कर रही है। शायद इससे बड़े किसी सबूत की जरूरत नहीं है कि सरकार क्यों काले धन के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर रही है और सुप्रीम कोर्ट को खुद आगे बढ़कर विशेष जांच दल (एसआईटी) बनाना पड़ा है।
उल्लेखनीय है कि रिजर्व बैंक ने यूबीएस को साल 2007 में एक विदेशी बैंक के रूप में काम करने का बैंकिंग लाइसेंस जारी कर दिया। लेकिन मूल स्विस बैंक ने काले धन के सरगना हसन अली के मामले की जांच में सहयोग नहीं किया तो यह लाइसेंस 6 फरवरी 2008 को रोक लिया गया। मगर, बमुश्किल दो हफ्ते बाद 18 फरवरी 2008 से यह रोक हटा ली गई और यूबीएस तभी से मजे में काम कर रहा है।
यही नहीं, यूबीएस अपनी ब्रोकरेज व निवेश फर्म यूबीएस इंडिया सिक्यूरिटीज के रूप में भारत में 1990 से ही सक्रिय है। साल 2005 में एक मामले की जांच के बाद पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी ने उसे एक साल तक पी-नोट जारी करने से रोक दिया था। बता दें कि पी-नोट के जरिए आमतौर पर विदेश में रखे काले धन का निवेश भारत में किया जाता है।
भारत सरकार यह सब कुछ अच्छी तरह जानती-समझती है। फिर भी उसने यूबीएस को बैंक और निवेश फर्म के रूप में काम करने की इजाजत क्यों दे रखी है? यह सवाल इस हफ्ते सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी और एस एस निज्जर की पीठ ने सरकार से पूछा।
पीठ ने पूछा, “जो स्विस बैंक भारतीयों द्वारा अपना काला धन विदेश में रखने का कथित रूप से पसंदीदा ठिकाना बना हुआ है, उसे देश के भीतर रिटेल बैंकिंग शुरू करने की इजाजत क्यों दी गई है?” इस पर केंद्र सरकार के वकील ने कहा कि इससे विदेशी निवेश को खींचने में मदद मिलेगी। सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया और कहा कि क्या विदेशी निवेश खींचने के लिए यूबीएस को भारत में काम करने की इजाजत देना इतना जरूरी है कि उसके लिए दूसरे तमाम संवैधानिक सरोकारों व दायित्वों को ताक पर रख दिया जाए।
सुप्रीम कोर्ट के इस रुख पर यूबीएस का कहना है कि भारत सरकार को उसे बैंकिंग लाइसेंस देने के बारे में बचाव करना चाहिए। बता दें कि इस समय यूबीएस की भारत में इकलौती शाखा मुंबई में है।