संयोग या प्रयोग से सत्ता में हाथ में आ जाए और लोकतांत्रिक संस्थाओं को पंगु बनाकर येनकेन प्रकारेण सत्ता में बने रहने की सिद्धि हासिल कर ले तो किसी भी सत्ताधारी दल को गुमान हो जाता है कि वो भोलेभाले आम लोगों को ही नहीं, मीडिया से लेकर बुद्धिजीवियों व अर्थशास्त्रियों तक को चरका पढ़ा सकता है। लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसा कभी लम्बे समय तक नहीं चलता। शासन की नंगई एक न एक दिन सबसे सामने उजागर हो जाती है। सात परदों में छिपाकर रखा गया सच खुलकर बाहर आ जाता है। जीडीपी के उछलते आंकड़ों के बीच कॉरपोरेट क्षेत्र की पस्त हालत ऐसी दरार है जो हकीकत को बेनकाब करने लगी है। सरकार कह सकती है कि वो छोटी कंपनियों के लिए काम कर रही है और निफ्टी माइक्रोकैप-250 में शामिल कंपनियों की बिक्री जीडीपी से 4% ज्यादा 12% बढ़ी है। लेकिन इन कंपनियों तक का परिचालन लाभ मात्र 6% ही बढ़ा है। कॉरपोरेट क्षेत्र की हालत एक-दो नहीं, पिछली कई तिमाहियों से पस्त चल रही है। आखिर यह बराबर बढ़ रही जीडीपी की विकास दर से कैसे मेल खाता है? निवेशक तो मानकर चलते हैं कि जीडीपी बढ़ रहा है तो कॉरपोरेट क्षेत्र का मुनाफा भी बढ़ रहा होगा। लेकिन उनके साथ सरासर धोखा हो रहा है। ऐसा कब तक? अब गुरुवार की दशा-दिशा…
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