जब देश की 55 प्रतिशत खेती मानसून के भरोसे हो तो किसान आसमान ही नहीं, सरकार की तरफ भी बड़ी उम्मीद से देखता है। इस बार अभी तक मानसून की बारिश औसत से काफी कम रही है तो सरकार से उम्मीदें कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं। वैसे भी पांच साल कदमताल करने के बाद पहले से ज्यादा प्रचंड बहुमत से दोबारा सत्ता में आई सरकार से किसान ही नहीं, सारा देश बेहद ठोस कामों की अपेक्षा कर रहा है।
कृषि के लिए बीते पांच सालों में बहुतेरे वादे-इरादे जताए जा चुके हैं। इसलिए इस बार मसला सिर्फ इतना भर नहीं है कि किसानों को फसल की समग्र लागत का डेढ़ गुना एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) मिल जाए, उनकी आय अगले तीन साल में दोगुनी कर दी जाए, 50-100 गांवों का क्लस्टर बनाकर वहां एग्रो-प्रोसेसिंग प्लांट लगा दिए जाएं या उनके कर्ज माफ कर दिए जाएं। सवाल यह है कि देश के करोड़ों किसानों के लिए जो खेती घाटे का सौदा बन गई है, उसे मुनाफे का धंधा कैसे बनाया जा सकता है।
संसद में बात उठी है कि अब भी अपने यहां हर साल 40-50 हज़ार करोड़ रुपए की फल व सब्जियां प्रोसेसिंग के अभाव में बरबाद हो जाती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि वे कॉरपोरेट क्षेत्र से कृषि में निवेश करने को कहेंगे। इस बीच फरवरी के अंतरिम बजट में जिस पीएम-किसान योजना के तहत पांच एकड़ तक की जोतवाले 12 करोड़ लघु व सीमांत किसानों को हर साल 6000 रुपए देने की घोषणा की गई है, वह अब सभी 14.5 करोड़ किसानों तक बढ़ा दी गई है। ऊपर से नई सरकार ने पहली ही कैबिनेट बैठक में लघु व सीमांत किसानों को 60 साल का होते ही प्रति माह 3000 रुपए पेंशन देने की योजना पारित कर दी। दावा है कि प्रधानमंत्री किसान पेंशन योजना के तहत पहले तीन सालों में कम से कम पांच करोड़ लघु व सीमांत किसानों को कवर किया जाएगा।
पांच जुलाई को आ रहे आम बजट में यह सभी घोषणाएं बाअदब बामुलाहिजा दोहराई जाएंगी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण अपने बजट को गरीबों व किसानों का बजट बताएंगी। बीते वित्त वर्ष 2018-19 में किसानों को 11.68 लाख करोड़ रुपए का फसल ऋण दिया गया तो इस वित्त वर्ष 2019-20 में इसे 12-14 लाख करोड़ रुपए किया जा सकता है। यह अलग बात है कि इतना विशाल कर्ज देश में कहां के कितने किसान लेते हैं, यह रहस्य न अभी तक खुला है और न ही इस बार खुलेगा।
वैसे, सरकार ने बजट से पहले अच्छा काम किया कि गांव-गिरांव से जुड़े तीन मंत्रालयों – कृषि व किसान कल्याण, ग्रामीण विकास और पंचायती राज को मिलाकर एक मंत्री के अधीन कर दिया। इससे फैसले लेने और लागू करने में आसानी हो जाएगी। लेकिन मसला क्या है? चार मुद्दे खास हैं – फसलों की उत्पादकता व पैदावार कैसे बढ़े, उसकी मार्केटिंग व्यवस्था पुख्ता कैसे हो, उनका लाभकारी मूल्य कैसे मिले और कृषि में पूंजी निवेश कहां से आए। अगर कॉरपोरेट क्षेत्र कृषि में पूंजी लगाता है तो क्या किसानों की स्थिति खनिजों से सम्पन्न इलाकों के आदिवासियों जैसी नहीं हो जाएगी? क्या किसानों का धन पूंजी नहीं होता? क्या कृषि को कॉरपोरेट क्षेत्र के हवाले करना ज़रूरी है, उसी तरह जैसे नोटबंदी से एमएसएमई क्षेत्र को औपचारिक क्षेत्र में लाने के नाम पर बड़ी पूंजी के हवाले कर दिया गया?
देश के 82.75 प्रतिशत लघु व सीमांत किसानों की अलग-अलग जोतों को सहकारिता से बड़ा बनाया जा सकता है। उनके फार्मर प्रोड्यूसर संगठन (एफपीओ) बनाए जा सकते हैं। उनके खेत कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लिए कॉरपोरेट क्षेत्र को भी दिए जा सकते हैं। तीनों ही प्रयोग देश में चल रहे हैं। उनके अनुभव से वित्त मंत्री को इस बार के बजट में कोई साफ खाका पेश करना चाहिए। उन्हें यह भी साफ करना होगा कि अमेरिका जिस तरह अपने कृषि व डेयरी उत्पादों को भारत में बेचने का दबाव बना रहा है, उससे वे कैसे लड़ेंगी। अनाजों व कृषि उत्पादों के आयात-निर्यात पर भी साफ नीति की घोषणा करनी होगी। यह भी बताना पड़ेगा कि पीएम-किसान योजना में 14.5 करोड़ किसानों को तो हर साल 6000 रुपए मिल जाएंगे, लेकिन 14.4 करोड़ से ज्यादा भूमिहीन खेतिहर मजदूरों का क्या होगा?
असल में, किसान अपने स्तर पर जितना हो सकता है, वह कर रहा है। बहुतेरे छोटे किसान गेहूं-धान छोड़ पपीते व केले की खेती करने लगे हैं। अब सरकार की बारी है। उसे किसानों की बात सुननी पड़ेगी। मगर, याद रखना होगा कि किसान पेड़ जैसा असहाय नहीं है कि कोई भी उसे काटकर फर्नीचर या भट्ठे में झोंकने की लकड़ी की तरह इस्तेमाल कर ले। रास्ते निकालना और उन पर चलना उसे आता है। बस, उसे अपने परोक्ष करों के एवज़ में सरकार का नीतिगत सहयोग व सहकार मिल जाए तो वह अपना कल्याण खुद कर लेगा।
(यह लेख 30 जून 2019 को दैनिक जागरण के मुद्दा पेज़ पर छपा है)