क्या सरकार से मुफ्त मिली चीजों का मोल लोगों की आय तय करने के लिए उनके खर्च में शामिल किया जा सकता है? लेकिन हमारे योजना आयोग ने इसी करामात की बदौलत 1.80 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकाल लिया है। उसने सरकार की मिड डे मील स्कीम का फायदा लेनेवाले बच्चों के परिवारों की आय में इसका खर्च शामिल कर लिया है। अभी पिछले हफ्ते योजना आयोग की तरफ से जारी आंकड़ों के मुताबिक देश में गरीबों की संख्या वित्त वर्ष 2004-05 से 2009-10 के बीच 5.20 करोड़ घटकर 35.50 करोड़ पर आ गई है। लेकिन मिड डे मील स्कीम के असर को निकाल दें तो यह संख्या वास्तव में 3.40 करोड़ घटकर 37.30 करोड़ पर आई है। यानी, गरीब घटे जरूर हैं। लेकिन उतने नहीं, जितने का दावा योजना आयोग कर रहा है।
योजना आयोग का दावा है कि 2004-05 में देश के 37.3 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे थे, जबकि 2009-10 में यह औसत 29.9 फीसदी पर आ चुका है। लेकिन मिड डे मील के असर को निकाल देने पर यह अनुपात 31.5 फीसदी का हो जाता है। यह हकीकत तब है कि जब हम राजनीतिक हलकों और बुद्धिजीवियों में छिड़ी इस बहस में पड़ ही नहीं रहे कि महंगाई के इस दौर में शहरों में 28.65 रुपए प्रतिदिन और गांवों में 22.40 रुपए खर्च को गरीबी रेखा का पैमाना कैसे माना जा सकता है।
जानकारों के मुताबिक योजना आयोग की तरफ से जारी किए गए अनुमानों की तुलना तेंदुलकर समिति द्वारा पहले जारी किए गए अनुमानों से नहीं की जा सकती क्योंकि दोनों में उपयोग पर खर्च का अलग पैमाना अपनाया गया है। मालूम हो कि गरीबी रेखा पर नया आकलन पेश करनेवाली समिति के प्रमुख सुरेश तेंदुलकर का निधन पिछले साल 21 जून को हो चुका है। पिछले हफ्ते संसद में मचे हंगामे के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था, “हमें गरीबी को मापने के लिए एक बहुआयामी तरीका अपनाना होगा। तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट में सभी कारक सम्मिलित नहीं है और वो संतोषजनक नहीं है।”
लेकिन उस बहस में न पड़कर केवल इस तथ्य पर गौर किया जाए कि राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) ने गरीबों की गणना करते वक्त 2009-10 में मिड डे मील से मिले लाभ को भी शामिल किया है, जबकि 1993-94 और 2004-05 समेत किसी भी सर्वे में यह आंकड़ा शामिल नहीं था, तब एकदम भिन्न तस्वीर उभरती है, जिससे जाहिर होता है कि योजना आयोग कैसे अपेक्षाकृत चकमदार तस्वीर दिखाने के लिए झूठे आंकड़ों का सहारा ले रहा है।
सर्वे में अतिरिक्त खर्च के मद (आइटम कोड – 302) में परिवार के खर्च में मिड डे मील स्कीम के तहत सरकारी स्कूलों के बच्चों को दिया गया भोजन शामिल है। उसमें बाकायदा इसके मूल्य की गणना करके जोड़ा गया है। जवाहर नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर हिमांशु ने एक विश्लेषण में कहा है कि इस तरह के सरकारी खर्चों को निजी परिवारों के खर्च में शामिल करना विवादास्पद है। कल को मुफ्त की पाठ्य पुस्तकों, स्कूल यूनिफॉर्म, सब्सिडी-युक्त खाने, कलर टीवी या सस्ते लैपटॉप को भी व्यक्ति के खर्चों को शामिल कर लिया जाए तो सारी गणना का बेड़ा गरक हो जाएगा।
इससे पहले अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला तो कैलोरी के आधार पर गरीबी रेखा तय करने के तरीके पर ही सवाल उठा चुके हैं। उनका कहना है, “केवल कैलोरी से व्यक्ति की गरीबी नहीं तय की जा सकती। किसी के पास कपड़े नहीं, घर नहीं है। लेकिन वह लंगर में खाना खा रहा और उसे कैलौरी मिल रही है तो क्या उसे गरीब नहीं माना जाएगा? भारत सरकार का पैमाना नाकाफी है। गरीबी रेखा तय करते वक्त व्यक्ति की शिक्षा, शिक्षा की संभावना, उसके रहन-सहन और मकान आदि की गणना भी की जानी चाहिए।”