हमारे राजनेताओं को मजबूरन अपनी जुबान खोलते वक्त जन-भावनाओं का ख्याल रखना पड़ता है। लेकिन अच्छे से अच्छे नौकरशाह भी अक्सर जन-भावनाओं के प्रति इतने असंवेदनशील हो जाते हैं कि ऐसी बातें बोल जाते हैं कि अपनी परंपरा का यह नीति-वाक्य तक याद नहीं रहता – सत्यम् ब्रूयात प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यम् अप्रियं।
आपको याद होगा कि कुछ साल पहले अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने कहा था कि दुनिया में जिंसों के दाम इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि भारत व चीन जैसे देशों के लोग पहले से ज्यादा खाने लगे हैं। तब उनकी बड़ी खिंचाई हुई थी। लेकिन अब उन्हीं की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए रिजर्व बैंक के गवर्नर दुव्वरि सुब्बाराव ने कहा है, “चूंकि ग्रामीण (लोगों की) आमदनी बढ़ रही है तो लोग पहले से अच्छा खा रहे हैं। वे अनाज के बजाय प्रोटीन-युक्त आहार लेने लगे हैं, जिससे खाने-पीने की चीजों की तंगी पैदा हो गई है।”
सुब्बाराव ने शनिवार को भुवनेश्वर में आईआईटी के छात्रों को संबोधित करते हुए यह बात कही। सोचिए, खाने-पीने की चीजों की तंगी को गांववासियों की समृद्धि से जोड़ने की बात से आईआईटी के छात्रों में ग्रामीण भारत की क्या छवि गई होगी। और, यह राजनीतिक रूप से कितना गलत बयान है क्योंकि हमारी लगभग 70 फीसदी आबादी अब भी गांवों में रहती है।
हालांकि आंकड़ों की बात करें तो सुब्बाराव की बात काफी हद तक सच है। नरेगा जैसी योजनाओं से गांव के गरीबों की आय बढ़ी है और पहले जहां वे दिन में एक बार खाते थे, अब दो बार खाने लगे हैं और उनके भोजन में दाल जैसी प्रोटीन वाली चीजों का हिस्सा बढ़ गया है। लेकिन जिस देश को अपने लोगों के भरपेट खाने से परेशानी हो जाती है, उस देश की अर्थव्यवस्था 9-10 फीसदी भी बढ़ जाए तो उसका क्या मतलब?
बता दें कि खाद्य मुद्रास्फीति पिछले कई महीनों से दहाई अंकों में चल रही है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक थोड़ा थमने के बावजूद 12 फरवरी 2011 को बीते सप्ताह में इसकी दर 11.49 फीसदी रही है। इससे ठीक पिछले हफ्ते में यह 11.05 फीसदी थी। आंकड़े बताते हैं कि इस महंगाई में बड़ा योगदान दूध, अंडा-मीट व मछली और सब्जियों का है। सुब्बाराव को कौन बताए कि गांवों के ज्यादातर गरीब यह सारी चीजें खरीदकर नहीं, खुद पैदा करके खाते हैं। मुर्गा-मुर्गी और गाय-भैंस या बकरी खुद पालते हैं। मछली बाजार से नही, तालाब से मार कर खाते हैं।
लेकिन हमारे ‘शहरी बाबू’ रिजर्व बैंक गर्वनर मुद्रास्फीति के आंकड़ों को थामने के चक्कर में इतने उलझे हैं कि उन्हें यह सच दिखाई नहीं देता। उनका कहना था, “रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति के प्रबंधन के लिए जिम्मेदार है। लेकिन खाद्य मुद्रास्फीति में उसकी जिम्मेदारी थोड़ी कम हो जाती है क्योंकि यह आपूर्ति की दिक्कतों के चलते पैदा होती है।” वैसे, आपको बता दें कि सुब्बाराव बहुत काबिल और लोकतांत्रिक नौकरशाह माने जाते हैं। वे पारदर्शिता में यकीन रखते हैं। वे जब वित्त सचिव थे, तब भी उनकी कार्यशैली की तारीफ होती थी। नॉर्थ ब्लॉक के तमाम अफसर आज भी उनके दिनों को सम्मान के साथ याद करते हैं।