समझ में नहीं आता इन दुखी आत्माओं का क्या करूं? एक दुखी आत्मा ने लिखा है, “हेलो! आप यहां हर वक्त लिखते हैं कि मार्केंट मजबूत रहेगा। लेकिन हर वक्त वो नीचे ही नीचे जा रहा है। आपने लिखा था कि 6200 से 7000 तक निफ्टी जाएगा। मगर ऐसा नहीं हुआ। अगर आपको सही मालूम होता तो क्यों नहीं आप सबको बोलते कि निफ्टी 4500 तक जाएगा। जब निफ्टी 6200 था तब सब अपना बेच देते और अब नीचे आने पर खरीद लेते। आज बाजार नीचे आ गया है तब भी आप बोल रहे हैं कि वो ऊपर जाएगा। ये आपकी भूल है। आप निवेशक को हर वक्त सही बताया करें ताकि वो टाइम पर बेच सके। और, एक बात आपको बता दूं कि इस सरकार का जो हाल है, उसमें मार्केट ऊपर नहीं हो सकता। जब तक प्रधानमंत्री न बदला जाए या मुद्रास्फीति नीचे न आ जाए तब तक मार्केट में गति नहीं आएगी। आप पब्लिक लोग को उस वक्त सही बोले होते तो आज सब बचे रहते और तीन गुना माल हर पब्लिक के पास होता। आप जवाब दें। मैं आपका इंतजार कर रहा हूं।”
बंधुवर! क्या जवाब दूं आपको? यह कि आशा और निराशा जीवन के दो अभिन्न पहलू हैं। जीवन स्थितियां वहीं रहती हैं। यह आप पर होता है कि आप निराशा के शिकार होकर अवसाद में डूब जाएं या आशा से लबालब रहते हुए हर मुश्किल से जूझते जाएं। हां, मेरा दोष हैं कि मैं अंतिम बूंद तक आशावादी हूं। बाजार में भी यही दो खेमे बराबर चलते हैं। फर्क बस इतना है कि यहां निराशा व अवसाद से भी मंदड़िए कमाई कर लेते हैं। बाजार जितना गिरता है, उनका मुनाफा उतना ही बढ़ता है। इसलिए वे बाजार गिराने का हर बहाना खोजते रहते हैं। इनका कार्टेल इतना मजबूत है कि इन्होंने अनिल अंबानी समूह तक की कंपनियों को धूल चटा दी।
लेकिन इनके खेल से यह सच नहीं बदल जाता कि भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया में चीन के बाद सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है और 2050 तक वो चीन से भी बड़ी हो जाएगी। अगर आप निराशा व अवसाद के साथ जाना चाहते हैं तो मंदड़ियों का खेमा पकड़ लीजिए। लेकिन जहां तक मेरी बात है तो मैं जीवन की तरह ही बाजार में भी निराशा से कमाई करने को एक बीमार मानसिकता मानता हूं। सच को पूरे व सही परिप्रेक्ष्य में देखने का पक्षधर हूं तो ठोस कारणों के आधार पर बाजार के बढ़ने की बात करता रहा हूं और आगे भी करता रहूंगा। हां, मेरी बात निवेशकों के लिए होती है, ट्रेडरों के लिए नहीं। इसलिए ट्रेडर बंधु लोग मुझे माफ ही करें। उनसे तो मैं यही कहूंगा कि भाई, हमसे दूर ही रहें क्योंकि यहां से आपको कुछ नहीं मिलनेवाला।
बजट आ रहा हूं और मेरा इस वक्त यही मानना है कि बाजार ने रिटेल निवेशकों के लिए शानदार मौका पेश कर रखा है। बाजार तुरत-फुरत कहां जा रहा है, इसकी परवाह किए बगैर उन्हें यह सुनहरा मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। बाजार में इस तरह के अवसाद या डिप्रेशन की स्थितियां पहले भी आ चुकी हैं। लेकिन हर बार वो पलटकर नई ऊंचाई पर पहुंचा है। लीबिया कोई मसला नहीं है। कच्चे तेल के बढ़ते दाम हमसे ज्यादा विकसित देशों पर चोट करते हैं। इसलिए इससे उन्हें ही निपटने दीजिए।
मिस्र का मसला ऐसा था, लेकिन सुलट गया। यूरोप से भी ऋण संकट का हल्ला उठा था। वो भी हल हो गया। दुबई का संकट भी वक्त के साथ दफ्न हो गया। इन झंझावातों के बीच विकसित देशों के बाजार एक-डेढ़ फीसदी गिरे हैं तो भारतीय बाजार चार फीसदी से ज्यादा गिर गया है। मेरा कहना है कि अगर इस तरह की अंतरराष्ट्रीय घटनाएं विकसित देशों के बाजार को नहीं तोड़ सकीं, तो इनके आधार पर भारतीय बाजार को तोड़ने की कोशिशों को निहित स्वार्थ वाले बड़े-बड़े निवेशकों (एफआईआई व ऑपरेटरों) की तरफ से की गई जोड़तोल और चालबाजी ही माना जाना चाहिए।
मेरा कहना है कि जो स्टॉक अपनी बुक वैल्यू से 50 फीसदी डिस्काउंट पर चल रहे हैं, जो 10 से कम के पी/ई अनुपात पर ट्रेड हो रहे हैं और जिनकी टॉप लाइन या बिक्री/आय 200 करोड़ रुपए से ज्यादा है, वे आम निवेशकों के लिए बेहद सुरक्षित हैं। खुद मेहनत कीजिए। तलाशिए कि कौन से स्टॉक इस समय इन शर्तों को पूरा कर रहे हैं। अर्थकाम भी आपकी इस मेहनत में मदद करेगा। अगर 2008 में 35 रुपए पर चल रहा वीआईपी इंडस्ट्रीज 2009 में 950 रुपए तक पहुंच सकता है तो एक बार अगर बाजार ने फिर से अपने पैर जमा लिए तो वह ऐसे चमत्कार दोहरा सकता है।
इसलिए लंबी सोच रखनेवाले, दीर्घकालिक निवेशकों को इस समय अच्छे, मजबूत और विकास की दिशा में चल रहे स्टॉक्स को पकड़ लेना चाहिए। ऐसे मौके बार-बार नहीं आते। अंत में एक बार फिर तमाम दुखी आत्माओं से मेरी पुकार है कि अगर आप अवसाद के शिकार होना चाहते हैं तो हो जाइए और मंदड़ियों के जाल को विकराल बना दीजिए। लेकिन अगर आपको भारत की विकासगाथा पर यकीन है तो इन तात्कालिक हवाओं पर मत जाइए। तेज आंधी के बीच अपना माल-असबाब पकड़कर कहीं एक जगह सिकुड कर बैठ जाइए। आंधी रुक जाए तो आराम से अगला सफर शुरू कीजिए। समृद्धि की मंजिल बेसब्री से आपकी बाट जोह रही है।
अनिल जी, क्या बताऊ हर जगह यही हाल है, ये भोला मानस दो-दुनी-चार तो पढ लेता पर इस रिदम को जानने कि तनिक भी जाये परवाह नहीं करता है, यही कारण है कि वियतनाम जिसकी कुल हमारी जनसंख्या से ही मात्र ०.६% है ने १२ नोबेल पुरुस्कार पाये बटोरे और हम ३३% स्नातक देने वाले हमारा देश “मैया गई पहाडों हम रह गये अकेले ही” गाते अंग्रजी कि श्रेष्ठता से अभीभूत मात्र खाने कमाने तक ही सीमित रहते है,..सिंह जी मेरी तरफ से कह जरूर दिजिये कि यहॉं आप लोग समृद्धि के लिये हो, सुखी होने के लिये नहीं, ये बात अलग है जो इंसान सुखी मिला उसके बदन पर कमीज भी नहीं थी।