देश में विदेशी पोर्टफोलियो निवेश का आना जारी है। इस साल जनवरी से अब तक भारतीय शेयर बाजार में एफआईआई (विदेशी संस्थागत निवेशक) 46,196.83 करोड़ रुपए का शुद्ध निवेश कर चुके हैं। सोमवार को ही उन्होंने शेयर बाजार में 1264.11 करोड़ रुपए का शुद्ध निवेश किया, जबकि घरेलू निवेशक संस्थाएं तेजी के इस माहौल में बेचकर मुनाफा कमा रही है और उनकी शुद्ध बिक्री 797.83 करोड़ रुपए की रही। विदेशी निवेश के आने से रुपया भी मजबूत होता जा रहा है क्योंकि जहां डॉलर की आपूर्ति बढ़ रही है, वहीं रुपए की आपूर्ति सीमित है।
पूरा असर यह हुआ कि बीएसई सेंसेक्स 33 महीनों के नए शिखर, 20475.73 अंक पर पहुंच गया है, जबकि रुपए की विनिमय दर साढे पांच महीनों के उच्चतम स्तर 44.31 प्रति डॉलर पर पहुंच गई। इसकी खास वजह है कि साल 2010 में अब तक देश में 19.2 अरब डॉलर का विदेशी पोर्टफोलियो या एफआईआई निवेश आ चुका है, जबकि पूरे 2009 में यह 17.5 अरब डॉलर ही रहा था।
शेयर बाजार का गुब्बारे की तरह फूलना और रुपए का मजबूत होते जाना और उससे हमारे निर्यात का महंगा होना इसके साइड इफेक्ट या जोखिम हैं। लेकिन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने आश्वस्त किया है कि इस तरह विदेशी फंडों का देश में आना कोई चिंता की बात नहीं है और फिलहाल इस प्रवाह को रोकने के लिए हस्तक्षेप करने की कोई जरूरत नहीं है। प्रमुख बिजनेस चैनल ईटी नाऊ को दिए गए एक इंटरव्यू में वित्त मंत्री ने कहा कि जब भी जरूरत पड़ेगी, रिजर्व बैंक इस मामले में हस्तक्षेप करेगा।
असल में विदेशी पूंजी प्रवाह को किसी भी देश के केंद्रीय बैंक के लिए त्रिगुण फांस माना गया है। मुद्रा की विनिमय दर से लेकर इसका वास्ता मुद्रास्फीति से भी होता है। विकास के लिए विदेशी पूंजी चाहिए। लेकिन इसकी अधिकता कई समस्याएं पैदा कर देती है जिनसे निपटना आसान नहीं होता। इधर भारत समेत दुनिया की तमाम उभरती अर्थव्यवस्थाओं में विदेशी पूंजी का आना बढ़ गया है। कारण, अमेरिका व यूरोप जैसे देशों की अर्थव्यवस्था ठहरी हुई है। वहां ब्याज की दर न के बराबर है। इसलिए एफआईआई कर्ज लेकर भी भारत जैसे देशों के इक्विटी बाजार में निवेश कर रहे हैं।
वित्त मंत्री से जब पूछा गया कि क्या अभी विदेशी पूंजी प्रवाह की सीमा बांधने का सही वक्त नहीं आया है तो उनका कहना था, “मुझे तो यही लगता है।” लेकिन इस दौरान दुनिया के कई देश अपनी मुद्राओं को महंगा होने से बचाने के लिए बाजार में हस्तक्षेप करने लग गए हैं। जैसे, एशिया में जापान ने छह सालों में 15 सितंबर को पहली बार विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप किया ताकि येन को महंगा होने से बचाया जा सके। कोलम्बिया और थाईलैंड भी ऐसे कदम उठा चुके हैं। चीन ने तो अपनी मुद्रा को ऐसा बांध कर रखा है कि सबसे ज्यादा विदेशी पूंजी प्रवाह खींचने के बावजूद वह युआन को महंगा नहीं होने देता। यह अमेरिका और चीन में राजनयिक टकराव का बड़ा मसला बना हुआ है।