भारत ने छह सालों से भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र संधि को हस्ताक्षर करने के बावजूद लटका रखा है, यह बात मीडिया में उजागर होते ही वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी बचाव की मुद्रा में आ गए हैं। सोमवार को चुनाव प्रचार के दौरान कोलकाता मे उन्होंने मीडिया को बताया कि भारत जल्दी 2005 में हस्ताक्षर की गई इस संधि का अनुमोदन कर देगा।
इस बीच चुनावी माहौल के बीच वित्त मंत्री मुखर्जी बीजेपी पर बढ़-चढ़कर हल्ला बोलते रहे। भ्रष्टाचार को बीजेपी ने इस वक्त मुद्दा बना लिया ह। इस पर वित्त मंत्री का कहना था कि समय-समय पर इस मुद्दे को उठाना इस पार्टी की फितरत है। बीजेपी जब 1998 से 2004 के दौरान सत्ता में थी तो उसनें 1972 से ही सोचे गए लोकपाल विधेयक को पास नहीं कराया। किसी ने उसे इससे रोका नहीं था।
लेकिन सारे पैंतरों के बावजूद भ्रष्टाचार पर यूपीए सरकार की गंभीरता की कलई खुलती जा रही है। भ्रष्टाचार विरोधी संयुक्त राष्ट्र की जिस संधि को इस सरकार ने लटका रखा है, उसे संयुक्त राष्ट्र आमसभा ने 31 अकटूबर 2003 को न्यूयॉर्क में स्वीकार किया था। इसका अनुमोदन दुनिया के 140 देश कर चुके हैं। लेकिन भारत उन गिने-चुने देशों में शामिल है, जो अब तक इससे कन्नी काटते रहे हैं। असल में किसी भी अंतरराष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद उसे देश की संसद से मंजूर कराना पड़ता है। तभी उसका लाभ देश को मिल पाता है।
हालांकि संधि को मंजूर कराने की कोशिश में पूरा विदेश मंत्रालय लगा हुआ है। लेकिन कार्मिक मंत्रालय इसे अटकाए पड़ा है। इसी मंत्रालय को पहले एक नोट और बिल बनाकर कैबिनेट के सामने पेश करना है जिसे बाद में संसद के दोनों सदनों से मंजूर कराया जाएगा। इस पर ढिलाई के बारे में सरकार की तरफ से कहा जाता रहा है कि इस समय देश के कानून अंतरराष्ट्रीय संधि के अनुरूप नहीं हैं। इसलिए देर लग रही है। लेकिन देश के कानूनों को दुरुस्त करने से सरकार को कोई रोक नहीं रहा था।
सरकार अगर इस संधि का अनुमोदन कर देती है तो देश को विदेशी बैंकों में रखे काले धन को लाने में ज्यादा सहूलियत हो जाती। असल में इस संधि के प्रावधान तो सरकारी ही नहीं, निजी क्षेत्र तक के भ्रष्टाचार की भी धर-पकड़ करते हैं। संधि के तहत भ्रष्टाचार में जिस संपदा का नुकसान होता है, उसे फिर से हासिल करना मौलिक सिद्धांत है। इसकी धारा 51 में प्रावधान है कि जिस देश की संपदा विदेश में भ्रष्ट तरीके से लाई गई है, उसे इसे वापस कर दिया जाएगा। संधि में चुनाव प्रचार और राजनीतिक पार्टियों में पारदर्शिता लाने का भी उपाय है।
भारत अगर इस संधि का अनुमोदन कर चुका होता तो उसे राजनीतिक भ्रष्टातार पर रोक लगाने के साथ ही जर्मनी, लीचटेन्स्टाइन या स्विटजरलैंड में जमा देश का काला धन वापस पाने में इतनी दिक्कत नहीं होती। फिर भी अगर यह सरकार छह साल से इस संधि को लटकाए हुए है तो इसका मतलब यही है कि हाथी के दांत दिखाने के और, और खाने के और हैं।