वित्त मंत्री पर माया छाई, यूटीआई में ला रहे हैं सलाहकार ओमिता का भाई

पिछले इकत्तीस सालों से किसी न किसी रूप में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी से चिपकी रहीं उनकी वर्तमान सलाहकार ओमिता पॉल हर तरफ से उठे विरोध के बावजूद आखिरकार अपने भाई जितेश खोसला को यूटीआई म्यूचुअल फंड का चेयरमैन बनवाने में कामयाब हो ही गईं। खबरों के मुताबिक दो-चार दिन में इसकी औपचारिक घोषणा हो जाएगी। खोसला 1979 बैच के आईएएस अधिकारी हैं। अभी हाल तक कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय के तहत आनेवाले संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ कॉरपोरेट अफेयर्स में काम कर रहे थे। फिलहाल असम सरकार में अतिरिक्त मुख्य सचिव हैं।

बता दें कि इंडियन एक्सप्रेस से लेकर इकनॉमिक टाइम्स जैसे धाकड़ अखबार तक खोसला की नियुक्ति की विसंगति पर पहले पेज पर लीड खबर लगाकर शोर मचा चुके हैं। कारण यह है कि जितेश खोसला को म्यूचुअल फंड उद्योग या वित्तीय जगत का कोई अनुभव नहीं है। फिर भी उन्हें यूटीआई म्यूचुअल फंड के शीर्ष पद पर महज इसलिए लाया जा रहा है क्योंकि वे वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को अपनी मुठ्ठी में कसकर रखनेवाली ओमिता पॉल के भाई हैं। यहां तक कि अप्रैल में यूटीआई के नेतृत्व के लिए संभावित अभ्यर्थियों को शॉर्ट लिस्ट करनेवाली तीन सदस्यीय समिति ने जिन लोगों को छांटा था, उनमें खोसला का नाम ही नहीं था। लेकिन ओमिता पॉल ने जबरदस्ती बाद में उनका नाम डलवा दिया।

गौरतलब है कि इस साल 18 फरवरी को यूके सिन्हा यूटीआई के चेयरमैन व प्रबंध निदेशक पद से मुक्त होकर पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी के चेयरमैन बन गए। तभी से यूटीआई का यह पद खाली पड़ा है। यूं तो सिन्हा ही नहीं, उनसे पहले यूटीआई के सीएमडी रहे एम दामोदरन भी आईएएस थे। लेकिन खोसला के पास उनके जैसा कोई वित्तीय अनुभव नहीं हैं। जब उनकी इस कमी पर सवाल उठाए जाने लगे, तब इसे शांत करने के लिए रास्ता निकाला गया कि यूटीआई में चेयरमैन और प्रबंध निदेशक का पद अलग-अलग कर दिया जाएगा। पहले खोसला को चेयरमैन बना दिया जाएगा। उसके बाद फिडेलिटी इंडिया के प्रबंध निदेशक अंशु सुयश को यूटीआई का प्रबंध निदेशक बना दिया जाएगा। सुयश उद्योग की बारीकियों से वाकिफ हैं और नए प्रबंध निदेशक व सीईओ का काम बखूबी निभा सकते हैं। कहने का मतलब यह है कि काबिलियत न होने पर भी किसी न किसी तरह ओमिता पॉल के भाई को यूटीआई में रखवाना ही है।

चालाकी की बात यह है कि वित्त मंत्री या वित्त मंत्रालय इसमें प्रत्यक्ष रूप से कुछ नहीं कर रहे। बल्कि यूटीआई म्यूचुअल फंड की संचालक यूटीआई एसेट मैनेजमेंट कंपनी (एएमसी) में 74 फीसदी शेयरधारिता वाली चार सरकारी संस्थाओं के जरिए प्रणब दा की यह दादागिरी चलाई रही है। यूटीआई एएमसी में इस समय एलआईसी, भारतीय स्टेट बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा और पंजाब नेशनल बैंक के पास 18.5-18.5 फीसदी हिस्सेदारी है। बाकी 26 फीसदी हिस्सेदारी अमेरिका की फंड मैनेजमेंट कंपनी टी रोवे प्राइस के पास है। उसने इन चारों में से हर एक से 6.5 फीसदी हिस्सेदारी दो साल पहले ही कुल 650 करोड़ रुपए देकर खरीदी है। टी रोवे प्राइस खोसला की नियुक्ति के खिलाफ है। लेकिन सबसे बड़ी इकलौती शेयरधारक होने के बावजूद वित्त मंत्रालय की शह पर चार सरकारी संस्थाओं ने उसकी बोलती बंद करा दी है।

यूटीआई के बोर्ड में भी इसका विरोध हो रहा है। कुछ ही दिनों पहले बोर्ड के एक सदस्य पृथ्वी हल्दिया ‘व्यक्तिगत कारणों’ से अपना त्यागपत्र दे चुके हैं। प्राइम डाटाबेस के प्रमुख पृथ्वी हल्दिया यूटीआई के नए प्रमुख को चुननेवाली तीन सदस्यीय समिति में शामिल थे। असल में जिस तरह कभी देश के सबसे बड़े म्यूचुअल फंड से गिरते-गिरते यूटीआई म्यूचुअल फंड की स्थिति बिड़ला सनलाइफ म्यूचुअल फंड से भी नीचे पांचवें नंबर पर आ गई है, उसमें माना जा रहा है कि इसकी बागडोर बेहद मंजे हुए हाथों में होनी जरूरी है। लेकिन ओमिता पॉल को इससे कोई मतलब नहीं हैं और प्रणब दा को उन्होंने इस तरह भेड़ा बनाकर रखा है कि जो चाहें, जह चाहें, उनसे करा लेती हैं। ऐसा तब जब ओमिता पॉल की ताकत और प्रणब मुखर्जी की कमजोरी पर मीडिया समेत इंटरनेट पर टनों लिखा जा चुका है।

सेबी से कुछ महीने पहले निकले पूर्णकालिक निदेशक केएम अब्राहम भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक को पत्र लिखकर वित्त मंत्रालय की इस ‘मलकिन’ की कारस्तानियों का बखान कर चुके हैं। बता चुके हैं कि कैसे यह महिला सहारा से लेकर रिलायंस एडीएजी, एमसीएक्स एसएक्स व बैंक ऑफ राजस्थान को बचाने के लिए वित्त मंत्रालय का डंडा घुमाती रही है। लेकिन इसी साल 11 दिसंबर 76 साल के होने जा रहे प्रणब मुखर्जी ने ओमिता पॉल को सारी ताकत दे रखी है। श्रीमती पॉल के बारे में प्रणब दा कह चुके हैं कि, “ओमिता जानती है कि मैं किस तरीके से कहना चाहता हूं।” दादा का यह सच इकनॉमिक टाइम्स ने छापा था और संदर्भ बजट भाषण को लिखे जाने का था।

ओमिता पॉल आईआईएस (इंडियन इनफॉरमेशन सर्विस) अधिकारी हैं। वे पिछले इकत्तीस सालों से प्रणब मुखर्जी के निजी स्टाफ में शामिल रही हैं। 1980 के बाद प्रणब दा सरकार में जहां भी रहे हैं, श्रीमती पॉल उनके साथ रहीं। चाहे वो वित्त मंत्रालय हो या विदेश मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय वाणिज्य मंत्रालय अथवा योजना आयोग। यह साथ 1996 से 2004 तक तब छूटा, जब प्रणब मुखर्जी सरकार से बाहर पैदल थे। इन आठ सालों में श्रीमती पॉल ने चार विभाग बदल डाले। यहां तक 2002 में उन्होंने सरकारी नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृति (वीआएस) ले ली। 2004 में यूपीए की सरकार बनी तो वे वापस दादा के साथ जुड़ गईं।

दादा भी उनका पूरा ख्याल रखते हैं। मई 2009 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले दादा को चिंता लगी कि अगर वे मंत्री नहीं रहे तो श्रीमती पॉल का क्या होगा। इसलिए उन्होंने श्रीमती पॉल को केंद्रीय सूचना आयुक्त (सीआईसी) की कुर्सी पर पांच सालों के लिए सुरक्षित नियुक्त करवा दिया। इसका भी विरोध हुआ था। लेकिन यूपीए जीतकर फिर से सत्ता में आ गया तो श्रीमती पॉल सीआईसी से मुक्त होकर फिर से दादा के साथ आ गईं। उन्होंने 26 जून 2009 को सीआईसी के पद से इस्तीफा दिया। इसके एक दिन पहले 25 जून 2009 को ही उन्हें वित्त मंत्री की सलाहकार बनाया जा चुका था।

अंत में एक फुलझड़ी और। इस साल के बजट में संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के सदस्यों को कुछ भत्तों व सुविधाओं पर टैक्स की छूट दी गई है जो अभी तक मुख्य चुनाव आयुक्त, चुनाव आयुक्तों और सुप्रीम कोर्ट के जजों को हासिल थी। ये छूट तीन साल पहले 1 अप्रैल 2008 से लागू होगी। ओमिता पॉल के पति केके पॉल कभी पुलिस कमिश्नर हुआ करते थे। साल 2007 से यूपीएससी के सदस्य हैं। दो साल बाद 65 के हो जाने पर रिटायर होंगे। बाकी क्यों हुआ, कैसे हुआ, लिखने-बताने की जरूरत नहीं है।

इतना सारा कुछ कहने के बाद मेरा यही कहना है कि प्रणब मुखर्जी व्यक्तिगत जीवन में जो भी करें, यह उनका निजी मामला है, उनकी स्वतंत्रता है। लेकिन वे जब तक भारत सरकार में किसी ओहदे पर हैं, उन्हें निजी मसलों को सरकारी कामकाज में मिलाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। इस समय वे देश के खजाने का जिम्मा संभाल रहे हैं तो उनकी जिम्मेदारी और जबावदेही बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। पिछले तीस-इकत्तीस सालों में जो भी हुआ, सो हो गया। आगे तो उन्हें थोड़ी-सी शर्म करनी चाहिए। नहीं तो यह देश उन्हें माफ नहीं करेगा। अपनी गलती का प्रायश्चित वे यूटीआई के चेयरमैन पद पर ओमिता पॉल के भाई जितेश खोसला की नियुक्ति को रुकवाकर कर सकते हैं। अगर वे इतना भी नहीं कर पाते तो उन्हें वित्त मंत्री बने रहने का कोई हक नहीं है।

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