वैश्विक संकट ने ट्रेडरों और निवेशकों का फोकस ही बदल दिया है। अब वे हर दिन अमेरिका, डाउ जोन्स और यूरोप के बाजारों पर नजर रखने लगे हैं। वे दुनिया की तमाम वेबसाइटों को छान मारते हैं कि कौन-सा बैंक डिफॉल्टर हो गया या कौन-सा देश वित्तीय संकट की जद में आ रहा है। यहां तक कि वे उस देश के नागरिकों से भी ज्यादा अपडेट रहते हैं। जो निवेशक इस भागमभाग में कहीं गुम हो जा रहे हैं, वे एक बुनियादी सूत्र भूल रहे हैं कि जब रिस्क सबसे ज्यादा लगता है, तब वास्तव में वह सबसे कम होता है। कहने का मतलब है कि लंबे निवेश के लिए दांव लगाने का यह बेहद माकूल मौका व वक्त है।
इसमें कोई शक नहीं कि पश्चिमी देशों का झटका रह-रहकर उभरते देशों को झकझोरता रहेगा। लेकिन निवेशकों को यह बात याद रखनी चाहिए कि उनकी कमजोरी अगले कुछ महीनों में उभरते बाजारों की ताकत बन जाएगी। इस कड़ी में उभरते बाजार एक दिन यूरोप और अमेरिका से अभिन्न रूप से जुड़े रहने की बाध्यता से मुक्त हो जाएंगे। हां, उभरते बाजारों की अपनी समस्याएं हैं। लेकिन वे इन्हें खुद सुलझा लेंगे।
एक थ्योरी में अब भी वही बात कही जा रही है जो मैने दो दिन पहले कही थी कि अमेरिका के झटके के पीछे राजनीतिक कारक हैं। ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट में वॉरेन बफेट के हवाले यही बात स्थापित करने की कोशिश की गई है। आपको याद होगा कि मैंने कहा था कि अमेरिका का डाउनग्रेड मिलान में स्टैंडर्ड एंड पुअर्स के ऑफिस पर पुलिस के छापों के बाद किया गया है।
वैसे, इस बात की भी काफी गुंजाइश है कि इस सारे करतब के पीछे खुद अमेरिकी सरकार का हाथ हो क्योंकि उसे किसी भी सूरत में अमेरिकी डॉलर को बचाना था और इसके लिए डाउनग्रेड जैसे कदम हमेशा अपरिहार्य हो जाते हैं। इससे यह भी बात उठती है कि क्या अमेरिका ने नोट छापे भी थे कि नहीं? यकीनी तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। हो सकता है कि सारी लिक्विडिटी को केवल ऋण-प्रपत्रों के जरिए नचाया गया हो जिसका नतीजा यह हुआ कि अमेरिका का ऋण 14.3 लाख करोड़ डॉलर की सीमा के परे चला गया।
यह मेरी इस राय की पुष्टि करता है कि क्यूई-3 फरवरी 2012 के पहले नहीं आएगी। रेटिंग के डाउनग्रेड के साथ अमेरिका में आर्थिक विकास दर का अनुमान घटाकर 1 फीसदी कर दिया गया है। ब्याज दरों को 2013 तक बांध दिया गया है। तब तक वहां के राष्ट्रपति चुनाव जाने कबके संपन्न हो चुके हैं। इसलिए अमेरिका के पास खोने को कुछ नहीं है। दरअसल, यहां से हम अमेरिकी बाजार में अगले 12 महीनों में 25 फीसदी का उठाव देख सकते हैं। 1993 में कनाडा को डाउनग्रेड किया गया था और अगले 12 महीनों में वहां का बाजार 15 फीसदी बढ़ गया। इसी तरह 1988 में डाउनग्रेड किए जाने के बाद जापान का बाजार 25 फीसदी उछल गया था।
हमने अमेरिका के स्टॉक एक्सचेंज मॉडल का अनुसरण किया, लेकिन पूरी तरह नहीं। हम हमेशा बेचेनी, वोलैटिलिटी में चढ़े रहते हैं। बॉलीवुड ने जब भी हॉलीवुड की नकल की है, वह फ्लॉप रहा है। यही शेयर बाजार में हो रहा है। यह फ्लॉप शो बन गया है क्योंकि रिटेल निवेशक पूंजी बाजार छोड़कर जा चुके हैं। ब्रोकर अपने शटर गिरा रहे हैं। धीरे-धीरे यह बाजार फिरंगियों के हाथ में चला जाएगा। हम इस तरह वापस ब्रिटिश राज में पहुंच जाएंगे। जब हालात हद से गुजरकर बद से बदतर हो जाएंगे, तब कोई नया महात्मा गांधी जन्म लेगा।
आज प्री-ओपन सत्र में निफ्टी बढ़कर 1.09 फीसदी बढ़कर 5194.40 पर पहुंच गया। लेकिन बंद हुआ 1.27 फीसदी गिरकर 5072.95 पर। मेरा कहना है कि आप फिलहाल बाजार को यूं ही 5060 और 5260 के बीच नाचने दीजिए। इस दरम्यान हमें हर डुबकी पर खरीदने की रणनीति अपनानी चाहिए और अगले छह महीने तक इंतजार करना चाहिए। मैं आपसे शर्त लगा सकता हूं कि फरवरी 2012 तक सेंसेक्स 20,000 पर होगा।
असली चालाकी इस बात में हैं कि आप दूसरों के सामने उनको उसी तरह बयां कर दो जैसा वे खुद के बारे में सोचते हैं। फिर देखिए कि वे कैसे आप पर लहूलोट होते हैं।
(चमत्कार चक्री एक अनाम शख्सियत है। वह बाजार की रग-रग से वाकिफ है। लेकिन फालतू के कानूनी लफड़ों में नहीं उलझना चाहता। सलाह देना उसका काम है। लेकिन निवेश का निर्णय पूरी तरह आपका होगा और चक्री या अर्थकाम किसी भी सूरत में इसके लिए जिम्मेदार नहीं होंगे। यह मूलत: सीएनआई रिसर्च का फीस-वाला कॉलम है, जिसे हम यहां मुफ्त में पेश कर रहे हैं)