नए साल के बजट में तमाम टैक्सों में घटबढ़ हो सकती है। टैक्स का आधार बढ़ाने की कोशिश भी हो सकती है। लेकिन एक बात तय है कि वित्त मंत्री पलनियप्पन चिदंबरम किसानों या कृषि आय पर कोई टैक्स नहीं लगाएंगे। वैसे, बीजेपी की तरफ से अगर यशवंत सिन्हा वित्त मंत्री बने होते तो वे भी यह जोखिम नहीं उठाते। फिर भी टैक्स आधार बढ़ाने की बड़ी-बड़ी बातों से कोई भी वित्त मंत्री बाज़ नहीं आता।
दिक्कत यह है कि देश की 121 करोड़ की आबादी में से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से टैक्स तो सभी देते हैं। लेकिन प्रत्यक्ष कर देनेवालों की संख्या लगभग 3.40 करोड़ है, यानी कुल आबादी का मात्र 2.80 फीसदी हिस्सा अपनी कमाई पर टैक्स देता है। इसमें से 20 फीसदी कॉरपोरेट करदाता और 80 फीसदी गैर-कॉरपोरेट करदाता हैं जिनमें व्यक्ति, फर्म, अविभाजित परिवार व व्यक्तियों के समूह शामिल हैं। देश की 60 फीसदी से ज्यादा आबादी (लगभग 74 करोड़ लोग) कृषि पर निर्भर है। लेकिन इन पर प्रत्यक्ष टैक्स लगाने से डरती है सरकार। कैसे और क्यों? आइए जानते हैं।
दुनिया में अमेरिका से लेकर यूरोप तक हर जगह किसानों को सब्सिडी दी जाती है। इसलिए अपने यहां अगर खाद सब्सिडी दी जाती है तो यह सरकार की कोई दरियादिली नहीं है। असल मुद्दा यह है कि जहां अमेरिका में किसान कुल आबादी का महज दो फीसदी हैं, वहीं भारत में इनकी संख्या दो-तिहाई के आसपास है। सवाल यह भी है कि सब्सिडी के बावजूद देश के 80 फीसदी किसानों की हालत खस्ता क्यों है? बस किसी तरह गुजारा हो पाता है। बहुतों को मजदूरी करनी पड़ती है। देश की 12.10 करोड़ कृषि जोतों में से 9.90 करोड़ जोतों का आकार सवा तीन एकड़ से कम है। ये सारे के सारे छोटे व सीमांत किसान हैं जो कब नरेगा जैसे कार्यक्रमों या शहरों में दिहाड़ी मजदूर बन जाएं, कहा नहीं जा सकता। इस तबके के पास कुल कृषियोग्य जमीन का 44 फीसदी हिस्सा ही है।
बाकी 56 फीसदी जमीन के 20 फीसदी मालिक किसान ठीकठाक कमाई कर रहे हैं। वे जहां-तहां से जुगत निकालकर सरकारी स्कीमों और ग्रामीण विकास कार्यक्रमों का भी फायदा उठा रहे हैं। गन्ने से लेकर तमाम कैश क्रॉप से साल में लाखों कमाते हैं। इसका प्रमाण है ग्रामीण इलाकों में महंगे कॉस्मेटिक्स व टेलिविजन सेटों से लेकर कारों तक की अच्छी-खासी खपत। पंजाब, हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तराखंड के तराई इलाके में कुछ किसानों के पास मर्सिडीज़ जैसे कारें भी हैं। ऐसे किसानों का बड़ा भारी राजनीतिक रसूख है। वे अपने इलाके के एमएलए व एमपी के खासमखास होते हैं।
सरकार चाहे तो उनकी आय पर बड़े आराम से टैक्स लगा सकती है। लेकिन कृषि आय पर टैक्स लगाने को लेकर व्यापक हल्ला मचेगा। अभी तक चूंकि किसान कोई भी प्रत्यक्ष कर नहीं देते। मालगुजारी या लगान भी 3.20 एकड़ तक माफ है। बाकी किसानों को प्रति एकड़ साल में औसतन दस रुपए ही देने होते है जो न के बराबर है। उसे भी खत्म करने पर विचार हो रहा है। इसलिए किसानों में कभी कोई खलबली नहीं मचती। परोक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनकी जेब पर कितना भी हमला होता रहे, वे सरकार को कृपानिधान व माई-बाप ही मानते हैं। एक तो 40 फीसदी कृषि ही सिंचित है, बाकी भगवान या मानसून भरोसे है। दूसरे सिंचाई का मूल्य अक्सर सरकार माफ कर दिया करती है। उन्हें ज्यादातर बिजली भी राजनीतिक तोहफे में मिलती है।
दूसरी तरफ हकीकत यह भी है कि किसान पैसे का मोल जानते हैं। पाई-पाई का हिसाब रखते हैं। किसी को एक रुपया भी दे दिया तो उसकी पूरी कीमत वसूल लेते हैं। हर चीज पर मोलतोल करना उनकी फितरत है। अगर सरकार ने उन पर टैक्स लगा दिया तो किसान हर साल दिए जाने धन की कीमत मांगेंगे। वे सरकार से जवाबदेही की मांग कर सकते हैं। वे इस बात का हिसाब मांग सकते हैं कि उन्होंने टैक्स के रूप में सरकार को जो हज़ार-दो हज़ार रुपए दिए थे, उससे उनको क्या मिला। भले ही देश के 82 फीसदी छोटे व सीमांत किसानों पर कोई प्रत्यक्ष टैक्स न लगाया जाए, लेकिन बड़े किसान आसानी से उन्हें अपने पीछे लामबंद कर सकते हैं। इससे किसानों के बीच जाति व धर्म की दीवारें ढह सकती हैं।
जहां अभी देश में किसानों का कोई संगठन नहीं है, वहीं हर राज्य में जिले स्तर पर किसानों के स्वतंत्र संगठन बन सकते हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर एक मंच पर आ सकते हैं। वे पूछ सकते हैं कि आज़ादी के बाद के 66 सालों में अभी तक किसी भी किसान को कोई पद्म पुरस्कार क्यों नहीं मिला? इसी से डरती है हर सरकार। वह सोए हुए सिंह को जगाना नहीं चाहती। सरकार चाहती है कि देश किसानों के लिए भावनात्मक सत्ता ही बनी रहे, वास्तविक सहारा न बने। वहां से उसे फौजी मिलते रहें, पुलिस और सीआरपीएफ के जवान मिलते रहें। बाकी, वह मध्य-युगीन मानसिकता में ज़िंदा रहे। इसी वजह से किसानों पर सीधा टैक्स लगाने से बचती ही नहीं, भागती है सरकार। लेकिन ऐसा न तो देश के हित में है और न ही किसानों के। इस स्थिति को देरसबेर तोड़ना ही पड़ेगा।
किसानी पर टैक्स लगाने का अधिकार राज्यों की सरकारों को तो है, लेकिन केंद्र सरकार को नहीं। संविधान की सातवीं अनुसूची की हिसाब से।
en dot wikipedia dot org/wiki/Taxation_in_India
सोनू जी, सही कह रहे हैं आप। आपने जो संदर्भ दिया है, उसके अनुसार आयकर कानून 1961 का सेक्शन 10(1) और 12(1ए) कहता है कि कृषि आय पर टैक्स नहीं लगाया जा सकता। लेकिन आयकर कानून में मार्च 2012 तक 816 संशोधन हो चुके हैं। इस साल भी 20 के आसपास संशोधन हुए होंगे। ऐसे में यह किसी शास्त्रीय बहस का नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति का मामला है। सवाल यह है कि आप किसके साथ खड़े हैं। कोई भी कानून इतना पवित्र नहीं होता कि उसे बदला न जा सके। संविधान भी कोई धर्मग्रंथ नहीं होता। यह तो सरकार ही बार-बार किए गए संशोधनों से सिद्ध कर चुकी है।