दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक वो जो मूर्खों की तरह कोई परवाह किए बगैर गिरते-पड़ते बिंदास जिए जाते हैं। ऐसे मूर्खों की श्रेणी में मुझ जैसे बहुतेरे लोग आते हैं। दूसरे वो लोग हैं जो मूर्खों की तरह डर-डरकर ज़िंदगी जीते हैं; हर छोटे-बड़े फैसले से पहले जितनी भी उल्टी बातें हो सकती है, सब सोच डालते हैं। फिर या तो घबराकर चलने ही इनकार कर देते हैं या चलते भी हैं तो सावधानियों का क्विंटल भर का पिटारा कंधे पर लाद लेते हैं, अविश्वास का काला कंटोप दिमाग की आंखों पर चढ़ा लेते हैं। दिगम्बर जैनियों की तरह मुंह पर कपड़ा बांध लेते हैं। हर कदम फूंक-फूंककर रखते हैं। मन को हर आकस्मिकता की आशंका से भर लेते हैं।
लेकिन क्या ऐसा संभव है कि हम आगे जो होनेवाला है, उसे प्रभावित करनेवाले सारे कारकों को पहले से जान लें, उनके असर का हिसाब-किताब लगा लें? शायद नहीं क्योंकि ऐसे बहुत से न दिखनेवाले कारक अचानक पैदा हो जाते हैं, जिनकी कल्पना तक हमने नहीं की होती है। हम सब कुछ कभी नहीं जान सकते। अनिश्चितता का पहलू हमेशा बना रहता है। जिन अर्जित अनुभवों, उनसे बनी मानव चेतना और दिमाग से हम बाहर की चीजों को जानना चाहते हैं, हमारा वजूद खुद उनका हिस्सा होता है। इसलिए उसे निरपेक्ष तौर पर जान लेना कभी संभव नहीं है।
असल में अनिश्चितता अनंत है। एक कड़ी सुलझाइए तो खट से दूसरी खुल जाती है। यह एक असीम चेन-रिएक्शन है। जीवन तो छोड़ दीजिए, साइंस में भी यही होता है। हम कभी भी सारी आकस्मिताओं से निपटने का नुस्खा जेब में रखकर नहीं टहल सकते। मान लो ऐसा हुआ तो! मान लो वैसा हो गया तो!! इन आशंकाओं की चक्करदार सुरंग में हम भटकते नहीं रह सकते। पहले से नहीं तय कर सकते कि अगर ऐसा हुआ तो क्या करना है। बहादुर का मन हो, सैनिक की तैयारी हो, तभी काम बन सकता है।
वैसे, इंसान ने अनिश्चितता से निपटने के लिए तमाम टोटके बना रखे हैं। आप इन्हें भले ही अंधविश्वास कहें, लेकिन मैं तो इन्हें अनिश्चितता को नाथने का इंसानी जीवट मानता हूं। बिल्ली रास्ता काट गई तो पहले किसी के गुजरने का इंतज़ार करने लगते हैं। घर से निकल रहे हों और किसी ने छींक दिया तो फौरन रुककर पानी-वानी पीकर दोबारा निकलते हैं। गावों में दिशा-शूल खूब चलता है। मंगल-बुध उतर-दिश कालू का असर मैंने बचपन में सालों तक झेला है। जब भी जाड़ों की छुट्टियों के बाद नैनीताल पढ़ाई के लिए वापस लौटना होता तो जाने क्या संयोग था कि जानेवाले दिन हमेशा मंगल या बुधवार ही पड़ता। जाना तो टाल नहीं सकते थे तो उपाय यह निकाला जाता था कि सोमवार को ही मेरा कोई सामान जानेवाली दिशा में ले जाकर किसी के यहां रख दिया जाता। इसे पहथान (प्रस्थान) कहा जाता था।
परीक्षा में खास पेन ले जाना, पेपर पढ़ने से पहले गायत्री मंत्र पढ़ना या बजरंग बली का नाम लेना, खास मौके पर खास रंग की ‘लकी’ शर्ट पहनना जैसे तमाम टोटके हैं, जिससे लोग अनिश्चितता को जीतने का भ्रम पालते हैं। लेकिन ऊपर से एक जैसे दिखनेवाले ऐसे लोगों की भी दो श्रेणियां होती हैं। एक वो लकीर के फकीर होते हैं। जो इसलिए ऐसा करते हैं क्योंकि दूसरे लोग बहुत पहले से ऐसा करते आए हैं। हमारे शहरी मध्यवर्ग से लेकर गांव-गिराव के ज्यादातर लोग इसी श्रेणी में आते हैं। इस श्रेणी के कुछ लोग तो इस हद तक संशयात्मा और अंधविश्वासी बन जाते हैं कि उन्हें सचमुच मनोचिकित्सा की ज़रूरत होती है।
दूसरी श्रेणी उन लोगों की है जो इन विश्वासों से खुद को थोड़ा ज्यादा सुरक्षित महसूस करने लगते हैं। देश का व्यापारी और बिजनेस तबका इसी श्रेणी में आता है। ये दुनिया की चाल-ढाल बखूबी समझते हैं। सरकारी नीतियों की समझ होती है, नहीं होती तो समझाने के लिए वकीलों और विशेषज्ञों की फौज खड़ी कर सकते हैं। लेकिन इनके यहां भी नई फैक्टरी खोलने पर भूमि-पूजन होता है, नई मशीनों की पूजा की जाती है, नए दफ्तर पर नारियल फोड़ा जाता है। कोकिलाबेन तो छोड़िए, अनिल और मुकेश अंबानी तक इस सोच से मुक्त नहीं होंगे। हो सकता है नारायण मूर्ति या नंदन नीलेकणी इससे अछूते हों, लेकिन मैं यकीन के साथ नहीं कह सकता।
इन हालात में मुझे तो सबसे तर्कसंगत सोच यही लगती है कि जहां तक जाना जा सकता है वहां तक पूरी मेहनत व साधनों से जान लिया जाए। आकस्मिकता और अनिश्चितता का भी आकलन कर लिया जाए, जिसे बिजनेस में रिस्क-एसेसमेंट और मैनेजमेंट कहा जाता है। लेकिन बिजनेसमैन के पास तो रिस्क कवर करने के लिए इंश्योरेंस से लेकर हेजिंग तक के उपाय होते हैं। हमारे पास ऐसा कुछ नहीं होता तो हम यही कर सकते हैं कि अनागत से डरने के बजाय आंख-कान खोलकर अनिश्चितता की भंवर में छलांग लगा दें और माद्दा यह रखें कि जो होगा, सो देख लेंगे, निपट लेंगे। संत कबीर भी कह चुके हैं कि जिन बूड़ा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठि, मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठि।