ऋण से उऋण होने का मानस

हम भारतीय किसी भी तरह के ऋण से फौरन बरी होना चाहते हैं। यह हमारी परंपरागत नैतिकता का हिस्सा है। भारतीय संस्कृति में माना जाता है कि हर व्यक्ति पर कुछ न कुछ ऋण होते हैं। जैसे, मातृ ऋण, पितृ ऋण, गुरु ऋण। इसी तरह महात्मा गांधी का मानना था कि हर व्यक्ति पर समाज का ऋण भी होता है। हमारे जीवन में जो भी सुख-सुविधाएं, उपलब्धियां, यश, प्रतिष्ठा हमें मिलती है, उन सबके लिए हमारे अलावा हजारों-हजार लोग नितंतर काम करते रहते हैं।

इसीलिए गांधी जी का आग्रह था कि उतना ही लो जितने की तुम्हें जरूरत है। जरूरत से अधिक जो तुम्हारे पास है, तुम उसके ट्रस्टी हो। उसका उपयोग समाज के उन लोगों के लिए करो जो हमारी सामाजिक-आर्थिक दुरवस्था का शिकार हैं। यह सिद्धांत सिर्फ भौतिक साधनों पर ही नहीं, बल्कि ज्ञान पर भी लागू होता है। तुम्हारे पास जो ज्ञान है उसका उपयोग उनके लिए करो, जो हमारी व्यवस्था की वजह से अज्ञान के घने अंधेरे में घुटने को विवश हैं।

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