सब कुछ यंत्रवत। न थोड़ा इधर, न थोड़ा उधर। गिने-चुने लोगों को छोड़कर सब यही माने बैठे थे कि रिजर्व बैंक मौद्रिक नीति की पहली मध्य-तिमाही समीक्षा में ब्याज दरें 0.25 फीसदी बढ़ाएगा और मुद्रास्फीति को बड़ी चुनौती मानेगा। सो, ऐसा ही हुआ। रिजर्व बैंक ने चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) के अंतर्गत रेपो दर को 7.25 फीसदी से बढ़ाकर 7.5 फीसदी कर दिया है। रिवर्स रेपो दर को चूंकि इससे एक फीसदी कम और एमएसएफ (मार्जिनल स्टैंडिंग फैसिलिटी) दर को इससे एक फीसदी ज्यादा रहना होता है तो वे खुद-ब-खुद क्रमशः 6.5 फीसदी और 8.5 फीसदी हो गईं। नई दरें तत्काल प्रभाव से लागू हो गई हैं।
रेपो दर ब्याज की वह सालाना दर है जिस पर रिजर्व बैंक एकाध दिन के लिए बैंकों को सरकारी प्रतिभूतियों के एवज में रकम उधार देता है। रिवर्स रेपो वह ब्याज दर है जिस पर वह बैंकों से अतिरिक्त रकम लेकर उन्हें सरकारी प्रतिभूतियां देता है। इसी साल से शुरू की गई एमएसएफ दर वह ब्याज दर है जिस पर रिजर्व बैंक बैंकों को तब उधार देता है जबकि बैंक अपनी कुल जमा (एनटीडीएल) की एक फीसदी सीमा से ऊपर उससे उधार लेते हैं।
बाकी अन्य अनुपातों – सीआरआर या एलएलआर वगैरह को जस का तस रखा गया है। रिजर्व बैंक ने समग्र आर्थिक व मौद्रिक हालात पर नजर डालने के बाद माना है कि मुद्रास्फीति को थामना और मुद्रास्फीति की अपेक्षाओं को बांधना उसकी प्रमुख चुनौती है। इसलिए वह आगे भी मुद्रास्फीति-विरोधी भंगिमा अपनाए रखेगा। साथ ही वह देखेगा कि इसके लिए उठाए गए कदमों और वैश्विक घटनाक्रमों से घरेलू आर्थिक विकास के पथ पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
मुद्रास्फीति को काबू में लाने के लिए सिस्टम में तरलता की जैसी स्थिति चाहिए, वैसी चल रही है। रिजर्व बैंक के पास सरकार का कैश बैलेंस मार्च 2011 में खत्म वित्त वर्ष 2010-11 की चौथी तिमाही में औसतन 89,000 करोड़ रुपए ज्यादा रहा था। अब नए वित्त वर्ष 2011-15 की पहली तिमाही में 15 जून तक घटकर 29,000 करोड़ रुपए ऋणात्मक हो गया है।
जनवरी-मार्च 2011 के दौरान बैंक एलएएफ सुविधा के तहत रेपो दर पर रिजर्व बैंक से जहां औसतन प्रतिदिन 84,000 करोड़ रुपए उधार ले रहे थे, वहीं अप्रैल से 15 जून 2011 तक यह औसत घटकर 41,000 करोड़ रुपए पर आ गया है। हालांकि 15 जून को रिजर्व बैंक द्वारा दी गई शुद्ध रकम 60,250 करोड़ रुपए और आज (गुरुवार) 16 जून को 84,775 करोड़ रुपए रही है। इस तरह आज बैंकों ने औसत से दोगुनी नकदी रिजर्व बैंक से खींची है।
असल में बैंकों के पास ऋण की बराबर मांग बनी हुई है। इस साल मार्च से 3 जून के बीच बैंकों द्वारा मैन्यूफैक्चरिंग व उपभोक्ता सेक्टर को दिए गए ऋण (गैर-खाद्य ऋण) की वृद्धि 21.3 फीसदी से 20.6 फीसदी पर आ गई है। फिर भी यह 19 फीसदी की अपेक्षित दर से ज्यादा है। रिजर्व बैंक का कहना है कि ऋण की ऊंची लागत (ब्याज दर) उधार की वृद्धि पर अंकुश लगा रही है। लेकिन यह अब भी काफी ज्यादा है जिससे पता चलता है कि ऊंची ब्याज दरों से आर्थिक गतिविधियों पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ रहा है। यह भी तथ्य है कि मार्च 2011 में बैंकों की जमा में 17 फीसदी वृद्धि हुई थी, जबकि 3 जून 2011 को खत्म पखवाड़े में यह साल भर पहले की तुलना में 18.2 फीसदी अधिक है। मुद्रा आपूर्ति (एम-3) की बात करें तो मार्च 2011 में यह 16 फीसदी बढ़ी थी, जबकि 3 जून 2011 तक साल भर पहले की तुलना में 17.3 फीसदी बढ़ी है।
इस तरह तरलता व ऋण के मोर्चे पर हालत ठीकठाक है। बाकी बचा मुद्रास्फीति का पक्ष तो वहां हालत अब भी संगीन व चिंताजनक है। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर अप्रैल में 8.7 फीसदी थी। मई में 9.1 फीसदी हो गई है। एक तो ये अनंतिम आंकड़े हैं। इसलिए अंतिम आंकड़े ज्यादा हो सकते हैं। दूसरे, अभी इनमें कच्चे तेल के बढ़ते अंतरराष्ट्रीय मूल्यों का पूरा असर समाहित नहीं है। साथ ही विश्व स्तर पर जिंसों के दाम अब भी ऊंचे बने हुए हैं। इसलिए मुद्रास्फीति को नाथना रिजर्व बैंक ने अपनी प्राथमिकता माना है। उसका कहना है कि आर्थिक विकास की दर में थोड़ी कमी जरूर आई है। खासकर ब्याज दर के प्रति ज्यादा संवेदनशील ऑटो जैसे क्षेत्रों में धीमापन आया है। लेकिन कुल मिलाकर विकास के मुद्दे पर ज्यादा चिंता की बात नहीं है। वैसे भी, मानसून अच्छा है। यह कृषि के साथ-साथ हमारे उद्योगों के लिए भी सुखद है।