सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम आ चुके हैं। देश में करोड़ों दिलों की रुकी हुई घड़कनें अब चलने लगी हैं और दिमाग काम करने लगा है। इसलिए फेंकने-हांकने या हवाहवाई बातें करने के बजाय उस ठोस कार्यभार को समझने की ज़रूरत है जो देश की नई सरकार के सामने मौजूद है। समय बहुत कम है क्योंकि तीन साल बाद ही 2022 में हम आज़ादी की 75वीं सालगिरह मनाने जा रहे हैं। तीन साल में नया भारत बना देने का कार्यभार बहुत गंभीर है, इसलिए सारा गर्दोगुबार छांटकर दृष्टि को बहुत साफ और यथार्थपरक बनाने की ज़रूरत है।
पहली बात तो यह कि अगर हम दलगत स्वार्थ के बजाय समूचे देश का नज़रिया लेकर चलना चाहते हैं तो हमें सारा अंदाज़ ही बदलना होगा। हम कहते रहे हैं कि भारत दुनिया की छठीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। इस उपलब्धि का स्वागत करते हुए हमें यह सच भी स्वीकार करना पड़ेगा कि प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत का स्थान इस समय दुनिया के 193 देशों में 145वां है। ब्रिक्स के पांच देशों में प्रति व्यक्ति आय के पैमाने पर बाकी चारों देश भारत से काफी ऊपर हैं। इनमें से रूस 68वें, चीन 72वें, ब्राजील 75वें और दक्षिण अफ्रीका 92वें स्थान है।
ध्यान रखें कि नए भारत की तो बात ही छोड़ दीजिए, झूठ के आधार पर कोई अदना-सा नव-निर्माण भी नहीं हो सकता। अगर हम भारत में युवा आबादी की बहुलता को अपनी ताकत बनाना चाहते हैं तो हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा कि हम इस वक्त कुपोषण के मामले में दुनिया के 119 देशों में 100वें स्थान पर हैं। हम दावा करते हैं कि बिजनेस करने की आसानी में हम पिछले चार सालों में 65 स्थान उछलकर दुनिया के 190 देशों में 77वें स्थान पर आ गए हैं। लेकिन हम भूल जाते हैं कि महिलाओं की आर्थिक भागीदारी में दुनिया के 149 देशों में 147वें नंबर पर हैं। संसद में महिलाओं की भागीदारी के मामले में हम पाकिस्तान, बांग्लादेश व सऊदी अरब तक से पीछे हैं। इस मामले में दुनिया के 193 देशों में भारत का स्थान 149वां है।
हमें अगर नया भारत बनाना है तो हम देश में महिलाओं, नौजवानों और किसानों की वास्तविक स्थिति को नजरअंदाज़ नहीं कर सकते। नौकरशाही को जवाबदेह बनाना होगा। पुलिस सुधार लागू करने होंगे। राजनीति में कालेधन की भूमिका को खत्म करना होगा। समाज में फैली साम्प्रदायिक वैमनस्य की खाईं को पाटना होगा। लेकिन ऐसी बहुतेरी सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक चुनौतियों का सामना करते वक्त हमें हर मोर्चे पर शुरुआत सच से करनी होगी।
सत्य का सामना: आज सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि सत्यमेव जयते के देश में हर तरफ झूठ का बोलबाला है। जहां स्वामी दयानंद सरस्वती के ‘सत्यार्थ प्रकाश’, ज्योतिराव फुले के ‘सत्यशोधक समाज’ और महात्मा गांधी के ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ की सराहना होती थी, वहीं आज झूठ के प्रयोग की जय-जयकार हो रही हैं। ऊपर से हमारी सरकार का अंदाज़ उस कबूतर की तरह है जो समझता है कि आंखें बंद कर लेने से घात लगाए बैठी बिल्ली का खतरा टल जाएगा। केंद्रीय गृह मंत्रालय से संबद्ध राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो 1995 से हर साल किसानों की आत्महत्या के आंकड़े प्रकाशित कर रहा था। लेकिन 2016 से उसने ये आंकड़े देने बंद कर दिए।
राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे संगठन (एनएसएसओ) ने वित्त वर्ष 2011-12 के पहली बार समूची अर्थव्यवस्था में रोज़गार की स्थिति का व्यापक सर्वेक्षण किया। लेकिन सरकार ने उसकी रिपोर्ट का प्रकाशन रोक दिया क्योंकि इसमें बताया गया था कि देश में 2017-18 में बेरोजगारी की दर ने 1972-73 के बाद के 45 सालों का रिकॉर्ड छू लिया है। आज अर्थव्यवस्था का आकार बतानेवाले जीडीपी का सरकारी आंकड़ा तक अपनी विश्वसनीयता खो चुका है। नई सरकार को सच छिपाना बंद करना होगा और अपने आंकडों की विश्वसनीयता बहाल करनी पड़ेगी।
खाली हाथ खतरनाक: सरकार ने बेरोजगारी की जो हकीकत छिपाने की कोशिश की, उसका फौरन सामना न किया तो युवा असंतोष किसी दिन ज्वालामुखी बन सकता है। देश की सबसे ज्यादा 44 प्रतिशत आबादी 24 साल से नीचे की है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी (सीएमआईई) के मुताबिक हमारे 12 प्रतिशत ग्रेजुएट व पोस्ट-ग्रेजुएट बेरोज़गार हैं। उम्र के लिहाज़ से देखें तो बेरोजगारी की दर 15 से 19 साल के युवाओं में 38.24 प्रतिशत और 20 से 24 साल के युवाओं में 27.27 प्रतिशत है।
बेंगलुरु की अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी ने ‘द स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है। इसमें बताया गया है कि कैसे देश के छोटे शहरों में पांच करोड़ रोज़गार पैदा किए जा सकते हैं। उसका सुझाव है कि मनरेगा योजना को शहरों तक भी लाया जाए। साथ ही ज़रूरी है कि देश में जीडीपी का कम से कम 3 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य और 6 प्रतिशत हिस्सा शिक्षा पर खर्च किया जाए। अकेले इसी कदम से देश में दो करोड़ नए रोज़गार पैदा हो जाएंगे। अभी हम स्वास्थ्य पर जीडीपी का 1.1 प्रतिशत और शिक्षा पर 3 प्रतिशत से भी कम खर्च कर रहे हैं। फिलहाल, सरकार को राज्यों के साथ मिलकर केंद्र व राज्य सरकारों के खाली 22 लाख पदों को भरने का अभियान चलाना चाहिए।
छोटे उद्योगों का मान: भारत की अर्थव्यवस्था में रोजगार से लेकर निर्यात तक में सबसे ज्यादा योगदान सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योगों (एमएसएमई) का है। लेकिन पिछले पांच सालों में इनकी हालत खराब हो गई है। नोटबंदी की मार से यह क्षेत्र अभी तक उबर नहीं पाया है। औपचारिक अर्थव्यवस्था में लाने के नाम पर इन्हें बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों का निवाला बना दिया जा रहा है। इस क्षेत्र से जुड़े लोग बताते हैं कि इस समय छोटे उद्यमियों व व्यापारियों में आत्महत्या का अनुपात किसानों से ज्यादा है। लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही।
सरकार को एमएसएमई के लिए जुबानी जमाखर्च के बजाय ऐसी औद्योगिक नीति बनानी चाहिए जिससे मैन्यूफैक्चरिंग को बढ़ावा मिले और लघु क्षेत्र को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ के रूप में स्थापित किया जा सके। बता दें कि जर्मनी जैसे विकसित देश का मूलाधार लघु व मध्यम उद्योग क्षेत्र ही है।
किसानों का समाधान: सरकार को 2022-23 तक किसानों की आय दोगुनी करने का सब्जबाग दिखाना बंद कर देना चाहिए। अभी जो स्थिति है, उसमें यह लक्ष्य हासिल करने के लिए अगले चार सालों तक कृषि की वास्तविक विकास दर 15 प्रतिशत सालाना होनी चाहिए। यह असंभव है क्योंकि पिछले पांच साल में कृषि की विकास दर मात्र 2.9 प्रतिशत रही है। इसलिए सरकार अगर सचमुच गंभीर है तो उसे किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य सात साल आगे 2029-30 तक बढ़ा देना चाहिए। इस बीच उसे कृषि उत्पादों की मार्केटिंग लेकर उनके आयात-निर्यात और भू-स्वामित्व के स्वरूप में ऐसे संरचनात्मक सुधार करने पड़ेगे ताकि किसानों को अपनी पैदावार का वाजिब दाम सरकार की कृपा नहीं, बल्कि बाज़ार से मिल सके।
अमल का तंत्र: एक बुनियादी बात हम भूल जाते हैं कि लोकतंत्र में व्यक्तियों का नहीं, बल्कि सस्थाओं का महत्व होता है। उन्हीं के ज़रिए नीतियां ज़मीन तक पहुंचती हैं और अच्छे काम की निरंतरता जारी रहती है। लेकिन पिछले पांच साल में हुआ यह है कि नीति आयोग ही स्वतंत्र बचा है क्योंकि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘आल्टर इगो’ बन गया है, जबकि निर्वाचन आयोग से लेकर भारतीय रिजर्व बैंक व विश्वविद्यालय प्रशासन तक अपनी स्वायत्तता खो चुके हैं। इनकी स्वायत्तता को फौरन बहाल करना होगा। नहीं तो राजा चौपट भले ही न हो, लेकिन देश में अंधेरगर्दी का बढ़ते जाना तय है।
[यह लेख संडे नवजीवन के 26 मई 2019 के अंक में छप चुका है]