बढ़ती इक्विटी संस्कृति में दहकती क्रूरता

शेयर बाज़ार में रिटेल निवेशक अगर म्यूचुअल फंड की इक्विटी स्कीमों के जरिए ज्यादा पहुंच रहे हैं, नियमित एसआईपी कर रहे हैं तो यह एक स्वस्थ सिलसिला है। इससे वे भारत की विकासगाथा का हिस्सा बन रहे हैं। हालांकि इसमें भी रिस्क है, लेकिन यह रिस्क म्यूचुअल फंड स्कीमों के प्रोफेशनल मैनेजर और उनकी टीम संभालती रहती है। मगर, रिटेल निवेशकों का इंट्रा-डे ट्रेड और एफ एंड ओ, खासकर ऑप्शंस ट्रेडिंग में कूदना उनके लिए ही नहीं, देश की विकासगाथा के लिए भी घातक है क्योंकि आम लोगों की बचत उत्पादक काम में लगने के बजाय उनकी लालच का फायदा उठानेवालों के पास चली जाती है। बता दें कि बीते वित्त वर्ष 2023-24 में 92.5 लाख लोगों व प्रॉपराइटरी फर्मों ने एसएसई के डेरिवेटिव सेगमेंट में ट्रेड किया। इनका सम्मिलित ट्रेडिंग घाटा ₹51,689 करोड़ का रहा। साथ ही 100 में 71 इंट्रा-डे ट्रेडर नुकसान खाते हैं। फिर भी इन्हें लगता रहता है कि इनकी किस्मत कभी भी चमक सकती है। आखिर इस लालच को रोकने और भारत की विकासगाथा को चोट न पहुंचाने की ज़िम्मेदारी किसकी है? मगर अफसोस कि हमारे नीति-नियामक और अर्थशास्त्री इसे इक्विटी संस्कृति का बढ़ता प्रभाव बताकर तालियां बजा रहे हैं। यह कैसी क्रूरता है कि बढ़ाने के चक्कर में लोग कमाई गंवाते जा रहे हैं और सरकार चहक रही है! अब बुधवार की बुद्धि…

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