निर्यात बढ़ने और एफआईआई निवेश में जालबट्टा, कालाधन हो रहा सफेद

आपको आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि आप देखते ही नहीं। लेकिन जो भी देश के निर्यात आंकड़ों पर गौर कर रहा होगा, वह निश्चित रूप से आश्चर्य कर रहा होगा कि जब अमेरिका व यूरोप में आर्थिक संकट छाया हुआ है और हमारे 40 फीसदी निर्यात वहीं जाते हैं, तब हमारा निर्यात हर महीने इतनी छलांग क्यों लगाता जा रहा है? प्रमुख ब्रोकरेज फर्म कोटक सिक्यूरिटीज ने हाल ही जारी रिपोर्ट में विदेशी संस्थागत निवेश (एफआईआई) के आंकड़ों की गड़बड़ी को भी उजागर किया है, जिससे लगता है कि देश में निवेश व निर्यात के नाम पर आ रहे विदेशी धन के पीछे कोई न कोई जालबट्टा चल रहा है।

वाणिज्य मंत्रालय के मुताबिक बीते वित्त वर्ष 2010-11 में हमारा निर्यात 38 फीसदी बढ़ गया। आखिरी महीने मार्च 2011 में तो यह 54.1 फीसदी बढ़ गया था। अभी कुछ दिन पहले ही हमारे वाणिज्य सचिव राहुल खुल्लर ने औपचारिक आंकड़ों के आने से पहले ही बता दिया कि 2011-12 में अप्रैल से सितंबर तक के छह महीनों में हमारा निर्यात 52 फीसदी बढ़ गया है।

कमाल है! इस साल अप्रैल में 34.42 फीसदी, मई में 56.93 फीसदी, जून में 46.4 फीसदी, जुलाई में 81.8 फीसदी, अगस्त में 44.25 फीसदी और सितंबर में 36.1 फीसदी। इस बढ़त ने तो चीन के भी दांत खट्टे कर दिए हैं। क्या सचमुच दुनिया में भारतीय उत्पादों की इतनी मांग निकल आई है या इसमें कुल गुलगपाड़ा है? कोटक सिक्यूरिटीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक निर्यात के इस कदर बढ़ने का राज़ यह हो सकता है कि हमारे बिजनेसमैन निर्यात की ओवर-इनवॉयसिंग से अपना कालाधन देश में ला रहे हैं।

कोटक सिक्यूरिटीज के तीन शोधकर्ताओं ने बीएसई-500 सूचकांक में शामिल बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज की 500 बड़ी लिस्टेड कंपनियों के आंकड़े लिए और उनका मिलान वाणिज्य मंत्रालय के आधिकारिक आंकड़ों से किया। सरकारी आंकड़ा बताता है कि वित्त वर्ष 2010-11 में भारत का इंजीनियरिंग सामग्रियों का निर्यात 79 फीसदी (30 अरब डॉलर) बढ़कर 68 अरब डॉलर हो गया, जबकि बीएसई-500 कंपनियों का इंजीनियरिंग निर्यात केवल 11 फीसदी (1.38 अरब डॉलर) बढ़कर 12.7 अरब डॉलर हुआ है। सवाल उठता है कि बाकी 28.62 अरब डॉलर की निर्यात बढ़त क्या छोटी कंपनियों ने हासिल की है? क्या उन निजी कंपनियों का कमाल है जो स्टॉक एक्सचेंजों में लिस्टेड नहीं हैं?

इसी तरह सरकारी आंकड़ों के अनुसार धातुओं व उनसे बने उत्पादों का निर्यात 13 अरब डॉलर से बढ़कर 29 अरब डॉलर हो गया है। लेकिन बीएसई-500 सूचकांक में शामिल कंपनियों का ऐसा निर्यात एक अरब डॉलर से भी कम बढ़ा है। सरकारी आंकड़े के मुताबिक 2010-11 में देश के तांबे व जिंक की मिश्रधातु पीतल से बने सामानों का निर्यात चार गुने से भी ज्यादा हो गया। नया खरीदार देश चीन है जो अमूमन भारत से पीतल के सामान नहीं खरीदता रहा है।

विपक्षी पार्टियों को इसमें खास मसाला नजर आ रहा है क्योंकि प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वढेरा मुरादाबाद ही नहीं, देश के सबसे चर्चित पीतल के निर्यातकों में शुमार हैं। हो सकता है कि पीतल की चीजों का निर्यात बड़ी कंपनियां करने लगी हों। हमें इनका स्पष्ट अलग-अलग आंकड़ा मिलना चाहिए। दिक्कत यह है कि वाणिज्य मंत्रालय ने सारे आंकड़ों को इतना टेक्निकल बना दिया है कि सब कुछ खुला रहते हुए आम आदमी पूरी तस्वीर नहीं देख सकता है। वहां एचएस कोड डालकर ही आंकड़ा पाया जा सकता है।

कोटक सिक्यूरिटीज ने देश में विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) की तरफ से आई रकम में भी विसंगति निकाली है। सेबी का आंकड़ा कहता है कि 2010-11 में कुल 22 अरब डॉलर का एफआईआई निवेश देश में आया। जबकि वैश्विक निवेश के प्रवाह पर नजर रखनेवाली प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संस्था ईपीएफआर ग्लोबल के अनुसार इस दौरान भारत में 4.5 अरब डॉलर का ही एफआईआई निवेश आया है।

कोटक सिक्यूरिटीज की इस रिपोर्ट को आए करीब एक हफ्ता हो चुका है। इस पर खबरें तक छपीं और इकनॉमिक टाइम्स जैसे अखबार के सलाहकार संपादक स्वामीनाथन अंकलेसरिया अय्यर ने लेख तक लिखा है। लेकिन अभी तक सरकार की तरफ से कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है। ऐसे में अटकलें तेज हो गई हैं कि देश के कारोबारी व उयोगपति निर्यात की ओवर-इनवॉयसिंग करके विदेश में रखा अपना कालाधन वापस ला रहे हैं। यही नहीं, अपने कालेधन को सफेद बनाने के लिए वे एफआईआई निवेश का भी रास्ता अपना रहे हैं। अन्यथा, सरकारी आंकड़े और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के आंकड़ों में इतना भारी अंतर नहीं होता।

निर्यात कारोबार के इस कदर असामान्य रूप से बढ़ने पर वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा और वाणिज्य सचिव राहुल खुल्लर को भी सफाई देनी चाहिए। नहीं तो उनकी चुप्पी का मतलब हामी समझ लिया जाएगा और मान लिया जाएगा कि वे कालेधन को सफेद बनाने का जरिया बन रहे हैं। सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि ये सारी बातें बीजेपी जैसी विपक्षी पार्टियां भी अच्छी तरह जानती हैं। लेकिन वे भी सरकार के गिरेबान पर हाथ नहीं रख रही हैं। इससे यही संकेत मिलता है कि वे भी इस गोरखधंधे में किसी न किसी रूप में शामिल हैं।

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