दिसम्बर
ठंड का गोला कहर बरपाए
एक चिनगारी अंदर जलाए
समय के पार जाना अभी बाकी है….
ज़रा गौर से देखो, कान पार कर सुनो तो सही
वक्त ले रहा है करवट, पूरा पलटना अभी बाकी है
आने लगी कुछ नया होने की आहट,
पर होना अभी बाकी है
हवा में एक खुनक की खुशबू है तारी,
क्या है वो, जानना-पहचानना अभी बाकी है
धीरे-धीरे उठ रहा है धुआं सदियों से
सुलगती आग का जलना अभी बाकी है
नए के आने की तारीख भी मुकर्रर है मगर
आना अभी बाकी, इंतज़ार अभी बाकी है…
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नवम्बर
इंतज़ार क्यों, अब तो कूच की बेला है
चलना शुरू तो करो, पार कर ही लोगे
आज का कर लो इस्तेमाल भरपूर
आनेवाला कल मुझमें अभी बाकी है…
मौसम भी चला इस पुल से उस पार
इधर उमस कुछ बाकी तो उधर ठंड की खनक बाकी
चक्र है अनंत, चलता है अनवरत
इस पुल से उस पुल, फिर उस पुल के भी पार
चलना, चलते ही चले जाना अभी बाकी है…
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अक्टूबर
धान की बालियों पर पकने की खुशी जब तारी हो
रस भरे गन्ने ने कर ली गुड़ बनने की तैयारी हो
ऐसे में महुए से टपके फूलों के जाने का क्या मलाल
परदेश गए बेटे और विदा हुई बेटी का हालचाल
छूटा नहीं कुछ भी, गया नहीं कुछ भी,
सब कुछ है यहीं आसपास
क्योंकि रिश्तों की गरमी अभी बाकी हैं,
पागल प्यार की यारी अभी बाकी है…
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सितम्बर
साल का आधे से ज्यादा सफर पूरा, आधे से कम बाकी है
गोधूलि तो आ गई, भोर का उषाकाल बाकी है
गूंजता है सन्नाटा रात का
शोर है अजीब-सा, कोलाहल है
शिव के गले में कहीं अटका हलाहल है
गण सब अशक्त हैं, मस्त हैं सोए
शिव का तांडव अभी बाकी है, गणों का जगना अभी बाकी है
शोर का फटना, कोलाहल का मिटना
झूठ की हार और सच की जीत अभी बाकी है
सत्य का शिव और शिव का सुंदर बनना
अभी बाकी है
गोधूलि की बेला से उषाकाल की लाली तक
चलना अभी बाकी है, सफर अभी बाकी है…
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अगस्त
सावन में श्रवण हो, सिर्फ बोलना नहीं, सुनना हो
आकाश तक झूले हों, उठना ही नही, गिरना भी हो
हरियाली हो, उल्लास हो तो मासूम की हंसी भी हो
कभी यह पास थी, अभी दूर की मंज़िल है
साथ-साथ मिलकर उसे पास लाना है
तैरना है, झूलना है, उड़ना आसमां तक अभी बाकी है…
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जुलाई कैलेंडर
ये कोंपलों नहीं, नए-नए पौधों के जागने का मौसम है
कोयल की कूक, मेढकों के टर्राने का मौसम है
सूखते पसीने, सावन के झूले और फसलों के लहलहाने का मौसम है
इसलिए राग अभी बाकी है, मल्हार अभी बाकी है…
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जून कैलेंडर
पहली बारिस से ज्यों उठे सोंधी मिट्टी की महक
गर्द-ओ-गुबार के थमने पर दिखे इंद्रधनुषी चमक
नए-नए फूटते अंकुरों पर ज्यों इठलाती है चहक
वैसे ही हर कदम पर मिले नए ज्ञान की झलक …
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मई कैलेंडर
आग का दरिया हो
पस्ती को कौन पूछे
और धूप को संजोए
आग मुझमें बाक़ी है…
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अप्रैल कैलेंडर
फूल हूं, बस खिलने को हूं
पंछी हूं, बस उड़ने को हूं
बस थोड़ी धूप, थोड़ी हवा, थोड़ी आंच का इंतज़ार है
मैं तो रोटी हूं, बस पकने को हूं…
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