पिछले कई सालों से भारतीय निवेशकों के लिए बुलबुलों का दौर चल रहा है। पहले क्रिप्टो करेंसी। इसके बाद स्मॉल-कैप स्टॉक्स पर दांव लगाने का जुनून। फिर रेलवे से लेकर डिफेंस क्षेत्र तक की सरकारी कंपनियों ने गदर काटा। अब निवेशकों में आईपीओ का उन्माद। असल में जब भी शेयर बाज़ार तेज़ी पर होता है तो माहौल को भुनाने के लिए कंपनियां चीलों और मर्चेंट बैंकर उनके सेनानी कौओं की तरह नादान निवेशकों के झुंड पर टूट पड़ते हैं। निवेशक भी इधर उन्माद में पगलाए हुए हैं। तभी तो यामहा मोटरसाइकल के मात्र दो शोरूम और आठ कर्मचारियों वाली कंपनी रिसोर्सफुल ऑटोमोबाइल का ₹12 करोड़ का आईपीओ लगभग 400 गुना ओवर-सब्सक्राइब हो जाता है और उसे करीब ₹4800 करोड़ मिल जाते हैं। कानपुर की सरस्वती साड़ी डिपो अपना प्रति शेयर मूल्य ₹152-160 रखती है और कम से कम 90 शेयरों का आवेदन करना था। फिर भी उसका आईपीओ तीन दिन में ही 93 गुना से ज्यादा सब्सक्राइब हो जाता है। आईपीओ या पब्लिक इश्यू को लेकर ऐसा ही उन्माद 30 साल पहले 1994 में चढ़ा था। तब बहुत सारी कंपनियां निवेशकों से करोड़ों रुपए खींचकर अचानक चम्पत हो गई थीं। अब तथास्तु में आज की कंपनी…
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