जो दिखता है, वह सच नहीं और जो सच है, वह तब तक नहीं दिखता जब तक कोई घोटाला न जाए। सच की ऐसी परदादारी देख किसी का भी विश्वास टूट सकता है। सोचिए, मार्च 2019 के अंत तक पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव (पीएमसी) बैंक का सकल एनपीए 3.76 प्रतिशत और शुद्ध एनपीए 2.19 प्रतिशत रहा था, जबकि इसी दौरान देश से सबसे बड़े बैंक एसबीआई का सकल एनपीए 7.53 प्रतिशत और शुद्ध एनपीए 3.01 प्रतिशत था। तब एसबीआई का पूंजी पर्याप्तता अनुपात 12.72 प्रतिशत और पीएमसी बैंक का उससे थोड़ा ही कम 12.62 प्रतिशत था। कमर्शियल बैंकों तक के लिए रिजर्व बैंक ने इस अनुपात का मानक 9 प्रतिशत तय कर रखा है।
फिर भी महाराष्ट्र से लेकर कर्नाटक, दिल्ली, गोवा व गुजरात तक फैली 137 शाखाओं वाला पीएमसी बैंक आज डूबने की कगार है। उसके तकरीबन 16 लाख जमाकर्ता हक्के-बक्के होकर सोच रहे हैं जो बैंक ऊपर से इतना मजबूत दिख रहा था, जो साल के 365 दिनों में 300 दिन बराबर सेवाएं देता था, जो बचत खाते पर एसबीआई की 3.5 प्रतिशत की तुलना में 4 प्रतिशत ब्याज दे रहा था, आखिर वह अंदर से इतना खोखला क्यों निकला और उस पर भरोसा करके उन्होंने क्या गुनाह कर दिया? आखिर आज बैंक से उन्हें अपना ही जमाधन निकालने से क्यों रोका जा रहा है?
दिक्कत यह है कि असहाय होने की यह मानसिकता आज उनकी ही नहीं, देश के बैंकों के लगभग 165 करोड़ चालू व बचत खातों के मालिकों की है। इनमें से कइयों के पास एक से ज्यादा खाते होंगे। साथ ही इसमें 37.22 करोड़ वे जनधन खाते शामिल हैं जिन्हें सरकार ने बैंकों को दौड़ा-दौड़ाकर खुलवाया है। इन जनधन खातों में ही फिलहाल 1.05 लाख करोड़ रुपए जमा हैं। बाकी अनुसूचित बैंकों की जमाराशि रिजर्व बैंक के ताज़ा आंकडों के अनुसार 129.07 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच चुकी है। इनमें से जिस भी खाताधारक को सच्चाई पता चल रही है कि वह घबराकर सोचने लगा है कि वह आखिर अपना धन रखे तो कहां रखे। बैंकिंग सिस्टम पर भरोसा टूटने का यह संकट पूरे देश में धीमे ज़हर की तरह फैल रहा है।
इस वक्त हर दो-तीन महीने पर कोई न कोई को-ऑपरेटिव बैंक बंद हो रहा है। देश में 1500 से ज्यादा सहकारी बैंक हैं। इन सबके जमाकर्ता बेहद डरे हुए हैं। बाकी बैंकिंग क्षेत्र की हालत भी ठीक नहीं। रेटिंग एजेंसी केयर रेटिंग्स ने हाल ही में देश के 36 प्रमुख बैंकों को परखने के बाद पाया कि इनमें से 17 बैंकों के एनपीए या डूबत ऋण कुल वितरित ऋण के 10 प्रतिशत से ज्यादा हो चुके हैं। इसमें से 16 सरकारी बैंक हैं और केवल एक निजी बैंक है। तीन सरकारी बैंकों – आईडीबीआई बैंक, यूको बैंक और इंडियन ओवरसीज़ बैंक का एनपीए तो 20 प्रतिशत से ऊपर है। केवल तीन सरकारी बैंक – एसबीआई, इंडियन बैंक और केनरा बैंक हैं, जिनका एनपीए 10 प्रतिशत से कम है।
केयर रेटिंग्स की रिपोर्ट के अनुसार, उसके अध्ययन में शामिल 36 बैंकों का एनपीए मार्च 2017 में 6.71 लाख करोड़ रुपए हुआ करता था। यह मार्च 2018 में 9.66 लाख करोड़ रुपए के शिखर पर पहुंच गया। फिर मार्च 2019 में घटकर 8.70 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गया। लेकिन उसके बाद जून 2019 तक फिर से बढ़कर 8.97 लाख करोड़ रुपए हो गया। यह रकम कितनी अहम है, इसका अंदाज़ आप इससे लगा सकते हैं कि यह चालू वित्त वर्ष 2019-20 में देश के 3.18 लाख करोड़ रुपए के रक्षा बजट की 2.82 गुनी है।
बैंकिंग प्रणाली की यह स्थिति अर्थव्यवस्था के लिए कतई शुभ नहीं। बैंक अर्थव्यवस्था के लिए धमनी तंत्र का काम करते हैं। वे लोगों की बचत को पूंजी बनाकर औद्योगिक, व्यापारिक व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों तक पहुंचाते हैं ताकि वे उसे खपत से लेकर रोजगार के अवसर पैदा कर सके। बैंकों का हाथ बंधते या उनके प्रवाह में रुकावट आने से सारी आर्थिक व वित्तीय प्रणाली तहस-नहस हो सकती हैं। कहीं ऐसा समुच न हो जाए, यह डर आज करोड़ों बैंक खाताधारकों को सता रहा है।
यह भी खास बात है कि बैंकों के प्रति जमाकर्ताओं के विश्वास टूटना एकतरफा मामला नहीं है। बैंक भी ऋण लेनेवालों के प्रति शंकालु हो गए हैं। वे कर्ज देने में हिचक रहे हैं। उन्हें डर है कि कहीं उनका दिया ऋण एनपीए के रूप में गले की हड्डी न बन जाए। रिजर्व बैंक के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक इस साल अप्रैल से मध्य-सितंबर तक बैंकों व गैर-बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों (एनबीएफसी) द्वारा व्यावसायिक क्षेत्र को दिए गए ऋण में लगभग 88 प्रतिशत की भारी कमी आई है। पिछले साल की समान अवधि में उन्होंने इस क्षेत्र को 7,36,087 करोड़ रुपए का ऋण दिया था, जबकि इस बार यह रकम 90,995 करोड़ रुपए तक सिमट गई।
जमाकर्ता और बैंकों को भय व अविश्वास की घुटन से निकालना ज़रूरी है। जिस सरकार ने कैश के खिलाफ अभियान चलाया और लोगों पर बैंकों में धन रखने का दबाव बनाया, वह आज बैंकों की विफलता की सीधी ज़िम्मेदारी लेने से बच नहीं सकती। उसे पीएमसी बैंक का उद्धार दस साल पहले के सत्यम कंप्यूटर मामले की तरह करना चाहिए। तब सरकार ने कॉरपोरेट क्षेत्र की मदद से चंद महीनों में ही कंपनी को पटरी पर ला दिया था।
(यह लेख 17 अक्टूबर 2019 को दैनिक जागरण के मुद्दा पेज़ पर छप चुका है)