शरद पवार जैसे बहुरंगी कलाकार की जगह मई 2014 में जब राधा मोहन सिंह को केंद्रीय कृषि मंत्री बनाया गया तो आम धारणा यही बनी कि ज़मीन से जुड़े नेता होने के नाते वे देश की कृषि अर्थव्यवस्था ही नहीं, किसानों के व्यापक कल्याण का भी काम करेंगे। संयोग से उससे करीब सवा साल बाद मंत्रालय का नाम भी बदल कर कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय कर दिया गया। लेकिन उसके बमुश्किल महीने भर बाद राधा मोहन सिंह ने ऐसा बयान दे दिया, जिससे उनकी सोच-समझ पर सवालिया निशान लग गया।
राजधानी दिल्ली में कृषि वैज्ञानिकों व किसानों के एक समारोह में उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार ने योगिक खेती का समर्थन करने का फैसला लिया है। राजयोग की मदद से किसानों का मनोबल बढ़ेगा और वे ग्लोबल वॉर्मिंग व जलवायु परिवर्तन जैसी वर्तमान चुनौतियों से निपट सकेंगे। साथ ही उन्होने कहा, “योगिक खेती के पीछे विचार यह है कि सकारात्मक सोच से हम बीज को सशक्त बना सकते हैं। परमात्मा-शक्ति की किरणों से हमें बीजों की उर्वरता बढ़ानी चाहिए। इससे भारत को विश्वगुरु बनाने में मदद मिलेगी और भारत एक बार फिर सोने की चिड़िया बन सकेगा।”
इसके बाद कृषि वैज्ञानिकों का भरोसा उनमें डगमगाने लगा। कुछ वैज्ञानिकों ने चुटकी ली कि उनकी यह सोच लगता है कि पौराणिक कहानियों वाले टीवी सीरियल देखकर निकली है क्योंकि हमारे प्राचीन ग्रंथों में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता। बाज़ार भी उनकी क्षमता व दावों पर संदेह करने लगा। इस बीच समय का पहिया बेरोकटोक चलता रहा। दो साल के सूखे के बाद रबी की मुख्य फसल खेतों में लहलहा रही थी। तभी कृषि मंत्रालय ने 15 फरवरी 2016 को पहला अनुमान पेश किया कि देश में 2015-16 के रबी सीजन में 938.2 लाख टन गेहूं की बम्पर पैदावार होने जा रही है जो 2014-15 के सीज़न में हुए 865.3 लाख टन उत्पादन से 8.42 प्रतिशत ज्यादा होगी। बाज़ार व वैज्ञानिकों ने कहा कि मिट्टी व वायुमंडल के सूखेपन को देखते हुए ऐसा संभव नहीं है। मार्च तक साफ होने लगा कि गेहूं की बालियों में कम दाने आएंगे। बाज़ार ने आगाह किया कि गेहूं का उत्पादन बहुत हुआ तो 800 से 850 लाख टन तक जा सकता है।
फिर भी राधा मोहन सिंह के नेतृत्व में कृषि मंत्रालय ने गेहूं उत्पादन का आकलन घटाने के बजाय बढ़ाकर 940.4 लाख टन कर दिया। उसके बाद तो इस बड़बोलेपन ने ऐसा दुष्चक्र पैदा किया जो आज किसानों ही नहीं, देश के लिए मुसीबत का सबब बन गया है। सारा चक्र यूं चला कि कृषि मंत्रालय की बातों में आकर केंद्र सरकार ने गेहूं पर आयात शुल्क 10 से बढ़ाकर 25 प्रतिशत कर दिया। पहले इसके लागू होने की तिथि 31 मार्च 2016 तक थी। फिर इसे 30 जून तक बढ़ाया गया और उसके बाद इसे बिना किसी अंतिम तारीख तक बढ़ा दिया गया।
यह सब तब हो रहा था, जब भारतीय खाद्य निगम समेत सभी सरकारी एजेंसियां अप्रैल-जून के दौरान केवल 229.6 लाख टन गेहूं ही खरीद सकीं, जबकि साल भर पहले की समान अवधि में उन्होंने इससे 22.29 प्रतिशत ज्यादा 280.8 टन गेहूं खरीदा था। इस हकीकत से रूबरू होने के बाद भी कृषि मंत्रालय हांकने से बाज नहीं आया। 2 अगस्त को कृषि भवन ने गेहूं उत्पादन का सबसे नया आंकड़ा 935 लाख टन का जारी किया जो बाज़ार से आकलन से कम से कम 85 लाख टन ज्यादा है। लेकिन धीरे-धीरे झूठे दावों की सतह के नीचे से सच्चाई सिर उठाने लगी और केंद्र सरकार की गति सांप-छछूंदर जैसी हो गई।
उपलब्धता कम होने से बाज़ार में गेहूं के दाम बढ़ने लगे। जुलाई में थोक मूल्यों पर आधारित मुद्रास्फीति की दर 3.55 प्रतिशत थी, जबकि गेहूं का थोक मूल्य इस दौरान 6.90 प्रतिशत बढ़ा। सितंबर में थोक मुद्रास्फीति की दर 3.57 प्रतिशत रही, जबकि गेहूं के थोक दाम 7.01 प्रतिशत बढ़ गए। सबसे नए आंकड़ों के मुताबिक नवंबर में थोक मुद्रास्फीति 3.25 प्रतिशत बढ़ी है, जबकि गेहूं के थोक भाव साल भर पहले से 10.71 प्रतिशत ज्यादा रहे हैं। बाज़ार की इस हकीकत से निपटना सरकार के लिए ज़रूरी हो गया। उसने 23 सितंबर को गेहूं पर आयात शुल्क 25 से घटाकर सीधे 10 प्रतिशत कर दिया और कहा कि यह मार्च 2017 में गेहूं की नई फसल आने तक लागू रहेगा। इस बीच नोटबंदी से गेहूं की बोवाई पर प्रतिकूल असर पड़ने की खबरें आने लगीं तो उसने 8 दिसंबर से गेहूं पर आयात शुल्क एकदम खत्म कर दिया।
जब उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे दो प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्यों के विधानसभा चुनाव कुछ महीनों बाद होने हों, तब विदेश से सस्ते गेहूं का शुल्क-मुक्त आयात करना सरकार के लिए कतई आसान फैसला नहीं था। विदेशी गेहूं देश के बंदरगाहों पर प्रति क्विंटल 21 से 21.5 डॉलर या 1425 से 1430 रुपए में पहुंच रहा है। वहीं इस साल के लिए गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1625 रुपए प्रति क्विंटल है। जाहिर है कि बाज़ार में बाहर का गेहूं 200 रुपए कम में मिलेगा तो भारतीय किसानों का गेहूं कौन पूछेगा! बीज से खाद तक के लिए कैश की तंगी से जूझ रहे किसान इससे और ज्यादा नाराज़ हो सकते हैं।
फिर भी सरकार ने गेहूं पर आयात शुल्क खत्म किया तो यह उसकी मजबूरी थी। दरअसल, 1 दिसंबर 2016 तक सरकारी गोदामों में 164.96 लाख टन गेहूं ही बचा है जो पिछले नौ सालों का न्यूनतम स्तर है। हर महीने राशन की दुकानों के लिए औसतन 25 लाख टन गेहूं निकलता है। इस हिसाब से मार्च तक गोदाम से 100 लाख टन गेहूं निकल जाएगा और 1 अप्रैल 2017 को उसके पास 64.96 लाख टन गेहूं ही बचेगा, जबकि नियमतः उस समय गेहूं की नई खरीद शुरू होने तक उसके पास कम से कम 74.6 लाख टन का बफर स्टॉक होना चाहिए।
इस तरह राजयोग और योगिक व वैदिक खेती की बात करनेवाले राधा मोहन सिंह के नेतृत्व में चल रहे कृषि मंत्रालय के हांकू अंदाज़ ने केंद्र सरकार को हर सूरत में फजीहत झेलने की स्थिति में ला खड़ा कर दिया। ऊपर से देश भर में नोटबंदी का कोहराम मचा हुआ है। ताज़ा हाल यह है कि काले धन का अजगर राजनीतिक पार्टियों के टैक्स-फ्री खातों की सुरंग में समाने की तैयारी में है। ऐसे में कृषि मंत्री का बड़बोलापन प्रधानमंत्री के दावे के टूटने से कहीं सरकार के लिए कोढ़ में खाज न साबित हो जाए।
[यह लेख 19 दिसंबर 2016 को प्रभात खबर के संपादकीय पेज़ पर छपा है]