सी-सॉ का खेल। तराजू के एक पलड़े पर डॉलर तो दूसरे पर रुपया। दो साल पहले जुलाई 2011 में डॉलर को बराबर करने के लिए पलड़े पर 44.32 रुपए रखने पड़ते थे। अब 61.22 रुपए रखने पड़ रहे हैं। इस तरह रुपया डॉलर के मुकाबले दो साल में 38.13 फीसदी हल्का हो चुका है। इस दौरान डॉलर खुद अपने देश में मुद्रास्फीति (उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित) के कारण जुलाई 2012 तक 1.7 फीसदी और उसके बाद अब तक 1.4 फीसदी हल्का हुआ है। वहीं भारत में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति का औसत 2012 में 9.30 फीसदी और 2013 में अभी तक 11.21 फीसदी रहा है।
इस तरह दो सालों के दौरान डॉलर अपने देश अमेरिका में 3.12 फीसदी और रुपया अपने देश भारत में 21.55 फीसदी हल्का हुआ है। मुद्रास्फीति के अंतर को आधार बनाएं तो इन दो सालों में रुपए के मुकाबले डॉलर का 18.43 फीसदी महंगा होना लाजिमी होता, सहज होता, स्वाभाविक होता। लेकिन वो तो इससे करीब-करीब 20 फीसदी ज्यादा महंगा हुआ है! मुद्राओं के विनियम मूल्य में यहीं पर मुद्रास्फीति के अंतर के अलावा मांग और सप्लाई के समीकरण अपना असर दिखाने लगते हैं।
देश में डॉलर की मांग ज्यादा और आवक कम है। हम जितना डॉलर कमा रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा खर्च कर रहे हैं। यह झलकता है देश के चालू खाते के घाटे से। हालांकि दिसंबर 2012 की तिमाही में यह घाटा जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के 6.7 फीसदी के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया था। लेकिन मार्च 2013 की तिमाही में घटकर जीडीपी के 3.6 फीसदी पर आ गया। फिर भी पूरे वित्त वर्ष 2012-13 में चालू खाते का कुल घाटा 87.8 अरब डॉलर, यानी जीडीपी का 4.8 फीसदी रहा है। यह एक खतरनाक स्तर है क्योंकि रिजर्व बैंक के मुताबिक इसका संतोषजनक स्तर जीडीपी के 2.4 से 2.8 फीसदी तक का है। चालू खाते के इस घाटे को पूंजी खाते से बराबर किया जाता है जिसका मुख्य स्रोत एफआईआई, एडीआर/जीडीआर, एफडीआई, अनिवासी भारतीयों की जमा और विदेशी ऋण हैं। इनमें से किसी भी स्रोत के कमज़ोर पड़ने पर डॉलर का प्रवाह धीमा पड़ जाता है और उसी अनुपात में रुपए पर दबाव बढ़ जाता है।
असल में कुल मिलाकर देखें तो मुद्राओं की मांग व सप्लाई और इससे निकलती विनिमय दर मोटे तौर पर तीन कारकों से प्रभावित होती है। ये हैं – व्यापार संतुलन; एफआईआई या पोर्टफोलियो निवेश; लंबे समय का विदेशी पूंजी प्रवाह (एफडीआई) + विदेशी ऋण। जिस तरह कंपनियों के लिए मार्जिन और रिटर्न अनुपात को मूलभूत पहलू माना जाता है, उसी तरह विनिमय दर के संदर्भ में व्यापार संतुलन को मूलभूत पहलू माना जा सकता है। दुख की बात यह है कि भारत का यह पहलू बेहद कमज़ोर है। निर्यात में धार नहीं और ज्यादा आयात करने की मजबूरी। हम कच्चे तेल की जरूरत का 72 फीसदी आयात से पूरा करते हैं। सोने का आयात हम पर भारी पड़ता है। लेकिन इन्हें रोकने का कोई कारगर विकल्प सरकार ने विकसित नहीं किया है। जलते तवे पर पानी छिड़कने जैसा ही काम वह कभी-कभार करती रही है।
दूसरा पहलू है एफआईआई या पोर्टफोलियो निवेश का। एफआईआई तो शुद्ध रूप से भारत में नोट बनाने के लिए आए हैं। वे कोई और मौका देखते ही भारत या किसी भी देश से रफूचक्कर होने लगते हैं। साल 2013 में अब तक अमेरिकी शेयर बाज़ार करीब 13 फीसदी और जापानी शेयर बाज़ार करीब 34 फीसदी बढ़ा है, जबकि यूरो ज़ोन समेत चीन व भारत के शेयर बाज़ार नीचे गिरे हैं। ऊपर से अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने साफ कह दिया है कि अगले साल 2014 के मध्य तक अर्थव्यवस्था की हालत दुरुस्त होने पर हर महीने बाज़ार से 85 अरब डॉलर के बांड खरीदने का सिलसिला बंद किया जा सकता है।
ऐसे में जाहिरा तौर पर एफआईआई को अपना धन भारत जैसे देशों से निकालकर वापस अमेरिका ले जाने में ज्यादा फायदा दिख रहा है। हमारी पूंजी बाज़ार नियामक संस्था, सेबी के मुताबिक एफआईआई इस साल अब तक इक्विटी व ऋण बाज़ार में कुल 11.36 अरब डॉलर का निवेश कर चुके हैं। लेकिन वे पिछले दो महीने से लगातार अपना निवेश निकाल रहे हैं। चालू जुलाई माह के कुछ दिनों में ही वे 93.83 करोड़ डॉलर निकाल चुके हैं।
अब बचता है तीसरा और आखिरी पहलू प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) व विदेशी ऋण का। इसमें से एफडीआई के जरिए जमकर देश में डॉलर आ सकते हैं। लेकिन इसके लिए देश में बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर और नीतियों का स्पष्ट होना जरूरी है। भ्रष्टाचार और दलाली में डूबी सरकार अपना फायदा देखकर नीतियों को उलटपुलट करती रहती है। ऐसे में विदेशी निवेशक भारत में धन लगाने से पहले सौ नहीं, हज़ार बार सोचते हैं। इसके बाद बचता है विदेशी ऋण का माध्यम जो तात्कालिक राहत ज़रूर देता है, लेकिन लंबे समय में देश से और ज्यादा पूंजी निचोड़ ले जाता है। इस तरह विनियम दर के मूलभूत पहलू, व्यापार संतुलन के साथ-साथ बाकी दो पहलुओं पर भी भारत की हालत कमज़ोर है। इसलिए कुछ जानकार मानते हैं कि तमाम सरकारी हो-हल्ले और तथाकथित उपायों को ठेंगा दिखाते हुए रुपया कुछ ही महीने में 70 के स्तर पर पहुंच जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
दिक्कत यह भी है कि चीनी युआन की तरह भारतीय रूपया भी अभी तक पूरी तरह बाज़ार भरोसे नहीं है। वो पूंजी खाते में परिवर्तनीय नहीं है। हमारा फॉरेक्स बाज़ार 10 बजे सुबह खुलकर शाम 5 बजे बंद हो जाता है। लेकिन बाकी दुनिया में नॉन डिलीवरीवाले फॉरवर्ड (एनआरएफ) सौदों के रूप में इसकी ट्रेडिंग चौबीसों घंटे होती रहती है। देश के भीतर रिजर्व बैंक सटोरियों पर लगाम लगाने के तमाम उपाय कर रहा है। वो रुपए को बचाने के लिए बाज़ार में सरकारी बैंकों के जरिए डॉलर भी बेचता है। लेकिन बाहर के सटोरियों पर उसका कोई अंकुश नहीं चलता क्योंकि वे पूरी तरह वैध धंधा कर रहे हैं। दूसरे, डॉलर बेचने में रिजर्व बैंक की अपनी सीमा है। अभी देश का कुल विदेशी मुद्रा भंडार 285 अरब डॉलर का है। वहीं जिस चीन से हमारी बराबर तुलना की जाती है, उसका विदेशी मुद्रा भंडार इस वक्त हमसे दस गुने से भी ज्यादा, 3310 अरब डॉलर का है।
अंत में निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि रुपए की इस दुर्गति के लिए सरकार की आंतरिक और बाह्य नीतियां ही जिम्मेदार हैं। रुपए को डॉलर के मुकाबले संभालना है तो पहली बात कि देश में मुद्रास्फीति को कम करना होगा। दूसरी बात, उसे ऐसी नीतियां बनानी होंगी जिनसे देश में लंबे समय के विदेशी निवेश के लिए माकूल माहौल बन सके। उसे जहां तक हो सके, पोर्टफोलियो या एफआईआई निवेश को हतोत्साहित करना होगा। लेकिन सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड बताता है कि वो उसका उल्टा ही कर रही है। ऐसे में रुपए का भगवान ही मालिक है। दूसरे शब्दों में अर्थव्यवस्था में सक्रिय अदृश्य नियम ही उसे फिर से उठाकर ऊपर लाएंगे। उसके उद्धार के लिए सरकार पर भरोसा करना खुद को धोखे में रखना होगा।