किसी भी पैमाने से देखें तो देश में अभी चल रही मुद्रास्फीति की दर काफी ज्यादा है। यह चिंता की बात है क्योंकि इससे एक नहीं, कई तरह की दिक्कतें पैदा होती हैं। खासकर आबादी के बड़े हिस्से के लिए जिसके पास इसके असर को काटने के लिए कोई उपाय नहीं है।
पहली बात कि मुद्रास्फीति आपके पास जो धन है, उसकी क्रय क्षमता को कम कर देती है। इससे बंधी-बंधाई आय और पेंशनभोगी लोगों का जीवन स्तर घट जाता है और उनके पास खर्च करने को पैसे नहीं बचते। दूसरी बात, इससे बचत का वास्तविक मूल्य घट जाता है क्योंकि (एफडी वगैरह) पर ब्याज दर ऋणात्मक हो जाती है और बचत पर मिलनेवाला रिटर्न कीमतों में हुई वृद्धि को पूरी तरह बराबर नहीं कर पाता।
तीसरी बात, रोजगार-धंधे में लगे लोग अपनी खपत व निवेश के फैसले अपनी मौजूदा व भविष्य की अनुमानित आय के साथ ही अपेक्षित मुद्रास्फीति की दरों के आधार पर करते हैं। लगातार बढ़ी हुई मुद्रास्फीति से इसकी आगे की अपेक्षाएं बदल जाती हैं और कीमतों की अनिश्चितता से उपजी चिंता से जहां लोगबाग अपने खर्च में कटौती कर देते हैं, वहीं कॉरपोरेट क्षेत्र अपना निवेश घटा देता है। इससे लंबे समय में आर्थिक विकास को चोट पहुंचती है।
चौथी बात, अगर मुद्रास्फीति की दर दूसरे देशों से ज्यादा गति से बढ़ रही है तो हमारे उत्पाद दुनिया के बाजार में कम प्रतिस्पर्धी हो जाते हैं, जिससे देश के विकास, रोजगार और भुगतान संतुलन (विदेशी पूंजी के आने व निकलने का अंतर) पर प्रतिकूल असर पड़ता है। पांचवी बात, अधिक मुद्रास्फीति से आय का वितरण प्रभावित होता है जिससे समाज में विषमता की स्थिति और बिगड़ जाती है। इससे गरीबों को सबसे ज्यादा तकलीफ होती है क्योंकि अमीर तो मुद्रास्फीति के असर को कम करने के तरीके अपना सकते हैं, हेजिंग कर सकते हैं। अंतिम बात कि मुद्रास्फीति को घटाने के लिए किए गए नीतिगत उपायों के अपने असर होते हैं और ये भी एक तरह की कीमत वसूलते हैं। इनसे दो-चार महीनों से लेकर दो-तीन साल में अर्थव्यवस्था में कुल मांग में कमी आ जाती है।
मिल्टन फ्रीडमैन का मशहूर वाक्य है – मुद्रास्फीति हमेशा और हर जगह एक मौद्रिक परिघटना है। माना जाता है कि छोटी अवधि में मुद्रास्फीति की दशा-दिशा पर मांग और सप्लाई का ज्यादा असर होता है, जबकि लंबी अवधि में मौद्रिक प्रसार मुद्रास्फीति की स्थिति को प्रभावित करता है। मौद्रिक प्रसार लगातार बने रहनेवाले बड़े राजकोषीय घाटे और इसे नोट छापकर पूरा करने से हो सकता है। नतीजतन, नोटों की अधिकता या मौद्रिक वृद्धि से लंबे समय तक लगातार अतिशय मांग की स्थिति रह सकती है और इसका उत्पादन व उत्पादकता में हुई समरूप वृद्धि से वास्ता नहीं होता। दूसरी तरफ सप्लाई की स्थिति का थोड़े समय के लिए मुद्रास्फीति की दशा-दिशा पर भारी प्रभाव पड़ता है।
हमारी जैसी तेजी से बढ़ रही विकासशील अर्थव्यवस्था में पूरी संरचना से जुड़े आम व विशिष्ट दोनों ही कारक मुद्रास्फीति के निर्धारण में अहम भूमिका निभा सकते हैं। हाल के सालों में अपने अदर सिमटे रहने की भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति बदल रही है। जिंस व्यापार, सेवाओं के स्वरूप, वित्त पोषण के हालात या उपभोक्ता की अभिरुचि जैसे तकरीबन सभी क्षेत्रों में वैश्विक कारकों का किसी न किसी हद तक असर पड़ा है। इस समय विश्व में जिंसों के दाम से हमारे अपने बाजार के दाम प्रभावित होते हैं। जबकि 1970 और 1980 के दशक में केवल कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय दाम ही हम को प्रभावित करते थे।
हालांकि हमारे यहां खाद्य वस्तुओं के दाम मुख्यतया घरेलू मांग व आपूर्ति की स्थिति और मूल्य नीति से निर्धारित होते हैं। हम खाद्य वस्तुओं की मांग का बड़ा हिस्सा अपने उत्पादन से पूरा करते हैं। खाद्य तेल और दालें इसका अपवाद हैं जिनमें हमारी आयात निर्भरता क्रमशः 35 और 15 फीसदी है। कम उत्पादन की स्थिति में हम कभी-कभी गेहूं और चीनी भी आयात करते हैं, नहीं तो अमूमन हम इनका निर्यात ही करते हैं। लेकिन कभी-कभार होनेवाले इस आयात से भी इन वस्तुओं के वैश्विक दाम बढ़ जाते हैं क्योंकि हमारी मांग ही काफी बड़ी होती है। इसलिए जरूरी नहीं है कि हम आयात करें तो उस वस्तु का दाम घरेलू बाजार में घट जाए।
कृषि जिसों की कीमतें को प्रभावित करनेवाला एक अहम कारक सरकार द्वारा खरीद के लिए घोषित किया जानेवाला न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) भी है। 2007-08 के बाद से एमएसपी में अधिक वृद्धि ने कृषि जिंसों के दाम बढ़ाने में योगदान किया है। दूसरे अनाजों की उपलब्धता में कभी भी उनके दाम बढ़ा देती है। 2009-10 की आर्थिक समीक्षा के मुताबिक देश में अनाज व दाल की दैनिक प्रति व्यक्ति उपलब्धता पिछले चार दशकों की तुलना में अब घट गई है। साठ व सत्तर के दशक में अनाज की रोजाना उपलब्धता 447 ग्राम प्रति व्यक्ति थी। अस्सी के दशक में यह 459 ग्राम और नब्बे के दशक में 478 ग्राम हुई। लेकिन 2000-08 के दौरान घटकर 446 ग्राम पर आ गई और 2008 में तो यह 436 ग्राम ही रही। 2009-10 के दौरान देश के कई भागों में सूखे की स्थिति से खाद्य उपलब्धता की स्थिति और बिगड़ गई होगी। दालों के मामले में तो स्थिति ज्यादा ही चिंताजनक है। पचास के दशक में इसकी उपलब्धता प्रतिदिन 60-70 ग्राम प्रति व्यक्ति थी जो इस समय केवल 30 ग्राम प्रतिदिन रह गई है।
मांग के पहलू को देखें तो हाल के सालों में भारत में एक बड़ा आर्थिक बदलाव यह आया है कि ग्रामीण मांग एकबारगी बढ़ गई है और कृषि क्षेत्र पर अब उसकी कम निर्भरता है। नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) के आंकड़ों के अनुसार 2006-07 के दौरान देश की कुल खपत में ग्रामीम खपत का हिस्सा करीब 58 फीसदी था। इसका भी 55-60 फीसदी भाग गैर-कृषि क्षेत्र के उपभोग का था। जहां कृषि क्षेत्र की मांग मौसम जैसे कारकों पर निर्भर करती है, वहीं गैर-कृषि क्षेत्र की मांग में हाल के सालों के अधिक स्थायित्व देखा गया है। इसकी वजह तमाम सरकारी योजनाओं के अधिक आवंटन और ग्रामीण विकास पर जोर दिया जाना है।
अभी हम आर्थिक विकास के जिस चरण में हैं, उसमें आय के स्तर के बढ़ने के साथ खाने-पीने की चीजों की मांग बढ़ेगी। दूसरे आबादी में उम्र का जो अनुपात हमारे विकास और उत्पादकता के लिए फायदे का सबब है, उसने उपभोग की मांग बढ़ा दी है, खासकर खाद्य वस्तुओं की। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अऩुसार, भारत की कुल आबादी में 15-59 साल के उम्र के लोगों का करीब 65 फीसदी होना साल 2040 तक मांग को तय करने का प्रमुख कारक बना रहेगा। इस दौरान बढ़ती मांग के बीच खाद्यान्नों की कम उपलब्धता और तिलहन व दालों जैसे प्रमुख कृषि जिंसों की कमी खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति को बढ़ाए रखेगी। ऊपर से दुनिया में खाद्य वस्तुओं के मूल्य इसे और हवा देते रहेंगे।
फिलहाल आज के हालात में मुद्रास्फीति की अपेक्षाओं को बांध कर रखना जरूरी है। हम मौद्रिक नीति के उपायों से ऐसा कर रहे हैं। लेकिन आपूर्ति संबंधी ढांचागत बाधाओं से, खासकर कृषि में, निपटना निहायत जरूरी हो गया है ताकि ऐसा न हो जाए कि मुद्रास्फीति प्रबंधन का काम भविष्य में कठिन से कठिनतर हो जाए।
– दीपक मोहंती (लेखक भारतीय रिजर्व बैंक में कार्यकारी निदेशक हैं। यह लेख उनके एक भाषण का संपादित अंश है)