महंगाई हकीकत है। मुद्रास्फीति आंकड़ा है। औसत है। और, औसत अक्सर कुनबा डुबा दिया करता है। खैर वो किस्सा है। हम जानते हैं कि कोई चीज महंगी तब होती है जब उसकी मांग सप्लाई से ज्यादा हो जाती है। कई साल पहले जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने कहा था कि दुनिया में अनाज की कीमतें इसलिए बढ़ी हैं क्योंकि चीन और भारत में अब भूखे-नंगे लोगों के पास खरीदने की ताकत आ गई है। ऐसी ही बात हाल में यूपीए सरकार ने कुछ नेताओं ने उवाची थी कि नरेगा जैसी योजनाओं से लोगों के पास धन आ गया है तो उनकी तरफ से नई मांग निकलने के चलते अनाज-दाल महंगे हो गए हैं। असल में आदर्श स्थितियों में ही मांग व सप्लाई का नियम लागू होता है। आपको याद ही होगा कि बुश के जमाने में सट्टेबाजों ने कच्चे तेल के दाम आसमान पर पहुंचाए थे, सप्लाई की कमी या मांग की अधिकता ने नहीं।
विकसित देशों में महंगाई की हकीकत और मुद्रास्फीति के आंकड़ों में फासला नहीं होता। अपने यहां चूंकि अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा संगठित नहीं हैं, आंकड़े जुटाने और उन्हें सही समुच्चय में बैठाने की पद्धति आधी-अधूरी है, इसलिए दोनों में काफी बड़ा फासला है। लेकिन हमारे अर्थशास्त्रियों और विद्वानों का ज्ञान संगठित व विकसित बाजारों पर आधारित है, इसलिए वे मुद्रास्फीति के बढ़ते ही ढोल बजाने लगते हैं कि अब तो मुद्रा की स्फीति को रोक देना चाहिए जिसका एक ही उपाय है कि ब्याज दरें बढ़ाकर धन की उपलब्धता को महंगा कर दिया जाए। ब्याज बढ़ने से लोग धन कम ले पाएंगे तो खर्च कम करेंगे जिससे मांग घट जाएगी, सप्लाई अपेक्षाकृत अधिक हो जाएगी और नतीजतन चीजें फिर से सस्ती हो जाएंगी। वैसे, बड़ा अजीब लगता है कि जब चीजें पहले से महंगी हों तो धन को भी महंगा बनाकर उन्हें कैसे सस्ता बनाया जा सकता है?
खैर, रिजर्व बैंक ने 2010-11 की सालाना मौद्रिक नीति में ब्याज दरों (रेपो व रिवर्स रेपो दर) को बढ़ाकर मांग घटाकर मुद्रास्फीति को घटाने की यही तरकीब अपनाई है। माना गया है कि कर्ज महंगा हो गया तो चीजों की सप्लाई मांग की अपेक्षा सही व संतुलित हो जाएगी। लेकिन उन्हें कौन समझाए कि कर्ज लेकर खर्च करना अमेरिका और यूरोप के लोगो की आदत है, हमारी नहीं। अमेरिकी में लीवरेज अनुपात 400 फीसदी है यानी लोग 100 रुपए कमाते हैं तो 400 रुपए खर्च करते हैं। भारत में यह अनुपात बमुश्किल 60-65 फीसदी का है। फाइनेंशियल इन्क्लूजन के तहत सरकार लोगों में कर्ज लेकर उपभोग करने की आदत डलवाना चाहती है। लेकिन हम अभी तक ऋणम् कृत्वा घृतम पीवेत् की मानसिकता को स्वीकार नहीं कर पाए हैं।
असल में माना जाता है कि व्यवस्था में जिस भी चीज की कमी रहेगी, वह महंगी हो जाएगी। जैसे, बीते साल कृषि व उससे जुड़ी गतिविधियों की बढ़ने नहीं, गिरने की दर 2.8 फीसदी रही तो खाने-पीने की चीजें महंगी हो गईं। इसी तरह जिस चीज से सारी चीजें खरीदी जाती हैं, यानी रुपयों की मात्रा घटा दी जाए तो वह महंगा हो जाता है। रिजर्व बैंक ने सीआरआर में चौथाई फीसदी वृद्धि से इसीलिए सिस्टम से 12,500 करोड़ रुपए निकाल लिए हैं। लेकिन समस्या यह है कि देश में धन के महंगे होने या ब्याज दरें अधिक होने से विदेशी धन का आना बढ़ जाता है क्योंकि वही धन उनके देश में कम कमाता है जबकि भारत में उस पर ब्याज से ज्यादा कमाई हो जाती है। अब होता यह है कि देश में डॉलर या यूरो जैसी विदेशी मुद्रा की सप्लाई बढ़ जाती है, जबकि रुपए की सप्लाई स्थिर व सीमित है तो रुपया इन मुद्राओं के सापेक्ष महंगा हो जाता है। इससे आयात तो रुपए में सस्ता हो जाता है, लेकिन निर्यात डॉलर या यूरो में महंगा हो जाता है जिससे देश का निर्यात कारोबार मात खा जाता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल ही में इसे रिजर्व बैंक की तिरगुन फांस बताया था।
अपने यहां मोटे तौर पर होनेवाले खर्च या जीडीपी का 65 फीसदी हिस्सा उपभोग में जाता है और 33 फीसदी हिस्सा निवेश का है। दूसरे इस 33 फीसदी हिस्से का आधे से ज्यादा भाग हाउसहोल्ड सेक्टर से आता है। ऐसे में नई फैक्टरियां लगाने, क्षमता बढ़ाने या इंफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश का काफी कम हिस्सा खर्च होता है। ऐसे में धन या पूंजी को महंगा कर देने से उपभोग पर तो ज्यादा फर्क पड़ेगा नहीं, हां निवेश पर जरूर असर पड़ सकता है। शायद इसीलिए रिजर्व बैंक बार-बार मुद्रास्फीति और आर्थिक विकास में संतुलन बनाए रखने की बात करता है। यह भी गौर करने की बात है कि जहां रिजर्व बैंक ने धन की उपलब्धता को कम करने की कोशिश की है, वहीं इस साल के बजट में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने 8 लाख रुपए तक की आय पर टैक्स में छूट देकर लोगों को थोड़ा अतिरिक्त धन खर्च करने के लिए दे दिया है।
अगर मुद्रास्फीति की असली वजह सप्लाई का कम हो जाना है, तब अगर रिजर्व बैंक ब्याज दरें या सीआरआर बढ़ाकर धन के प्रवाह की सीमित व महंगा करता है या दूसरे शब्दों में कठोर मौद्रिक नीति अपनाता है तो मुद्रास्फीति तो घटेगी नहीं, बल्कि निवेश घटने से बेरोजगारी बढ़ जाएगी। इस स्थिति को ही स्टैगफ्लेशन या मंदीस्फीति कहते हैं। इसीलिए भारत जैसे देश में मौद्रिक नीति हमेशा ऐसी होनी चाहिए कि जिससे कृषि से लेकर उद्योग में निवेश बढ़े, दोनों ही क्षेत्रों में उत्पादन बढ़े। ऐसा होने पर खाने-पीने की चीजों के दाम भी काबू में ला जा सकते हैं। ताजा आंकड़ों के मुताबिक खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति 10 अप्रैल 2010 को खत्म हफ्ते में 17.65 फीसदी रही है जबकि ठीक एक हफ्ते पहले यह 17.22 फीसदी थी। जाहिर है खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति सबसे ज्यादा मार गरीबों करती है, अमीर लोगों पर नहीं क्योंकि अमीरों के कुल खर्च में खाने-पीने की चीजों का अनुपात अधिक नहीं होता।
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