सरकारी सहायता न पानेवाले अल्पसंख्यक संस्थानों को छोड़कर देश के सभी सरकारी और प्राइवेट स्कूलों को अपनी 25 फीसदी सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित रखनी होंगी और उन्हें मुफ्त में शिक्षा देनी होगी। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को सुनाए गए ऐतिहासिक फैसले में शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा है। इसलिए इसे अपनाने की आखिरी कानूनी अड़चन हट गई है।
सुप्रीम कोर्ट में तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने बहुमत से ये राय जाहिर की कि यह कानून सारे देश में सरकारी और निजी स्कूलों पर लागू होगा। केवल सरकारी सहायता न पानेवाले अल्संख्यक संस्थानों पर ये आरक्षण लागू नहीं होगा।
मुख्य न्यायाधीश एस एच कपाड़िया और न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार ने इस आरक्षण को बनाए रखने का फैसला किया। लेकिन खंडपीठ के तीसरे न्यायाधीश के एस राधाकृष्णन का कहना था कि सरकारी सहायता प्राप्त न करने वाले निजी और अल्पसंख्यक दोनों विद्यालयों पर 25 फीसदी आरक्षण लागू नहीं होना चाहिए।
अदालत से स्पष्ट किया कि ये फैसला गुरुवार से ही लागू होगा और इसलिए इस अधिनियम के पारित किए जाने के बाद से हुए दाखिले इससे प्रभावित नहीं होंगे। तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने इस मुकदमे पर फैसला पिछले साल 3 अगस्त 2011 को सुरक्षित रखा था।
स्कूलों का मत था कि संविधान के अनुच्छेद 19(1) जी के तहत उन्हें अपने संस्थानों को बिना सरकारी हस्तक्षेप के चलाने की आजादी है। कई महीनों तक चली लंबी बहस के दौरान केंद्र सरकार ने इसी बात पर जोर दिया कि उनका उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों का कल्याण करना है। इस मामले में प्रमुख याचिकाकर्ता राजस्थान की सोसाइटी फॉर अनएडेड प्राइवेट स्कूल्स और निजी स्कूलों का प्रतिनिधित्व करने वाली कई अन्य संस्थाएं थी।