हम हिंदुस्तानियों के साथ मुश्किल यह है कि हम में से बहुतेरे लोग नई से नई समस्या का भी समाधान पुराने सूत्रों में खोजते हैं। झुमका गिरा है बरेली में और उसे ढूंढने निकल पड़ते हैं श्रावस्ती में। आज के समाधान के लिए गुजरे हुए कल को टटोलते हैं। पूरी गरदन 90 से 180 डिग्री तक मोड़ देते हैं। मुड़-मुड़के देखने के आदी हो गए हैं हम। सवाल उठता है कि जो चीज़ आज घट रही है, जो मुश्किल आज आ रही है, उसका समाधान पीछे कैसे हो सकता है? एड्स की बीमारी अगर बीसवीं सदी की देन है तो इसका निदान और इलाज वैदिक काल में कैसे हो सकता है?
लेकिन होता यही है। मृत्यु की पहेली की चर्चा हुई तो नचिकेता और यमराज का संवाद दोहरा डालते हैं। मन, योग, कर्म, मोह, प्रेम जैसी कोई बात हुई तो गीता का कोई श्लोक ठेल देते हैं। हमारे गांवों के बुजुर्ग तो बात-बात पर तुलसीदास की चौपाइयों को उद्धृत करने के अभ्यस्त हैं। समाजवादी विचारधारा के लोग लोहिया की बात करते हैं और कम्युनिस्ट मार्क्स और लेनिन के वाक्य इस अंदाज़ में दोहराते हैं जैसे वे कोई दार्शनिक या राजनीतिज्ञ नहीं, ज्योतिषी रहे हों; जैसे 1848 के कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में डेढ़-दौ साल बाद पूंजीवाद के उत्थान और पतन की सारी व्याख्या ब्यौरेवार लिख दी गई हो। हम सभी पर लाल बुझक्कड़ी अंदाज़ ऐसा हावी हो गया है कि नए को जानने का कुतुहल ही खत्म हो गया लगता है।
अब देखिए। मैंने स्थिरता और गतिशीलता के परंपर गुंफित होने के संदर्भ में लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई के साथ समय को मिलाकर चार विमाओं की बात की तो सूटर जी फटाक से बोल पड़े, “स्थिरता या गतिशीलता तो सदैव सापेक्ष होती, अब किसके सापेक्ष पृथ्वी के, सूर्य के या फिर किसी गैलेक्सी के… आप तो अभी चतुर्थ-आयाम तक पहुँचे हैं, मगर ऋषियों ने षट्-आयाम देख लिये थे।” मुझे नहीं समझ में आता कि ये कैसे संभव है? मुझे तो लगता है कि असलियत कालिदास के किस्से जैसी होगी। कालिदास जब विद्योत्मा की एक उंगली के जवाब में दो उंगलियां दिखाकर कहना चाहते थे कि तुम मेरी एक आंख फोड़ोगी तो मैं तुम्हारी दोनों आंखें फोड़ दूंगा तो पंडितों ने व्याख्या कर दी कि ब्रह्म एक ही है, लेकिन उसके दो रूप हैं।
यह सच है कि अतीत वर्तमान में समाहित होता है और वर्तमान भविष्य में। लेकिन उस तरह नहीं जैसे किसी छोटे गोले के ऊपर बड़ा और बड़ा गोला बनता जाता है तो छोटे गोले की रेखा भले ही मिट जाए, लेकिन उसका वजूद बड़े-बड़े गोले के भीतर बना रहता है। विज्ञान में भी यह होता है कि न्यूटन के नियम के आगे आइंसटाइन का सिद्धांत आता है तो न्यूटन के नियम का गोला बना भी रहता है और आइंसटाइन के सिद्धांत के बड़े गोले में समाहित भी हो जाता है। लेकिन मानव समाज के संदर्भ में अतीत वर्तमान का हिस्सा उस तरह बनता है जैसे आपके युवा या बुजुर्ग शरीर में आपका बचपन। बड़े गोले में जब चाहें छोटा गोला रेखांकित कर सकते हैं, लेकिन यहां तो बचपन के फोटो ही मिलते हैं, अनगिन जतन करने पर भी बचपन को अलग से रेखांकित करना संभव नहीं है। लखन भले ही कहते रहें कि बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं, लेकिन ज़रूरी नहीं है कि बड़े होने पर उसी विद्या से वे शिव का धनुष भी तोड़ डालें।
मानव समाज में कल के सूत्र आज की समस्याओं के समाधान नहीं हो सकते। कल की समस्याएं आज भी दोहराई जाती हैं, लेकिन उनका केवल बाहरी रूप मिलता-जुलता है, जबकि उनकी अंतर्वस्तु बदल चुकी होती है। समय आगे ही आगे बह रहा है। वह कभी भी पुरानी राहों पर नहीं लौटता। अगर हमें समय की सवारी करनी है तो खुद हमारे भीतर उसके रथ में जुते घोड़ों को अयालों से पकड़कर दौड़ाने का दम होना चहिए। अतीत के भूत कभी भी हमारी मदद नहीं कर सकते। वर्तमान की उलझी बागडोर सुलझाकर ही हम समय-सारथी बन सकते हैं।
2010-03-31