एस पी सिंह
दूसरी हरितक्रांति और दलहन विकास के लिए सिर्फ 700 करोड़ रुपये का सरकार ने बजट में प्रावधान किया है। जबकि आईपीएल की एक टीम 1702 करोड़ रुपये में बिकी है। यह हाल चल रहा है गरीबों व भुखमरी के शिकार लोगों के देश में!! खाद्यान्न की महंगाई ने लोगों की रसोई का बजट खराब कर दिया है और गरीबों के पेट भरने के लाले पड़े हैं। महंगाई पर चर्चा कराने को लेकर पक्ष-विपक्ष की झांय-झांय में कई दिनों तक संसद नहीं चली। आईपीएल की 20-20 क्रिकेट में टीम खरीदने की होड़ देखकर भला कौन कहेगा कि यह गरीबों का देश है। लोगों को सस्ता खाद्यान्न और किसानों को उसकी उपज का उचित मूल्य दिलाने के वादे वाले सरकारी बजट को आईपीएल की बोली मुंह चिढ़ा रही है। यह मजाक नहीं तो भला क्या है? देश, समाज व सरकार की प्राथमिकता क्या है और क्या होनी चाहिए कौन तय करेगा?
कहते हैं, महंगाई को ठंडा करने के लिए वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने दलहन की उपज बढ़ाने को 300 करोड़ की घोषणा कर संसद में खूब वाहवाही लूटी। लोगों को बताने के लिए कि सरकार महंगाई से आजिज है। इसीलिए दलहन व तिलहन की उपज बढ़ाने का फैसला किया है। वित्त मंत्री मुखर्जी ने बजट भाषण में जोर देकर कहा था कि आजादी के 60 सालों बाद भी दाल व तेल के मामले में देश आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है।
इसके लिए आम बजट में 300 करोड़ रुपये की लागत से 60 हजार गांवों को दलहन व तिलहन गांव के रुप में विकसित किया जाएगा। असिंचित क्षेत्रों से ऐसे गांवों का चयन किया जाएगा। इससे जल संरक्षण, संचयन और मिट्टी की जांच भी की जाएगी। उनकी इस घोषणा पर संसद में सत्ता पक्ष ने जमकर मेजें भी थपथपाई थी। बजट के इस प्रावधान से प्रत्येक गांव के हिस्से 50 हजार रुपये आयेगा, जिस पर योजना के सफल होने पर संदेह है।
सरकार की इस योजना की ‘गंभीरता’ पर कृषि संगठनों ने भी सवाल खड़ा किया। दरअसल, दलहन खेती की जमीनी मुश्किलों से सरकार वाकिफ नहीं है। दलहन खेती के लिए उन्नतशील बीज, वास्तविक न्यूनतम समर्थन मूल्य और जंगली जानवरों से मुक्ति के उपाय करने होंगे। नील गायों की बढ़ती संख्या ने दलहन खेती को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, खासतौर पर अरहर और उड़द को। प्रोटीन वाली दलहनी फसलों में रोग भी बहुत लगते हैं। देश में उन्नतशील प्रजाति की दलहन फसलो के बीज हैं और न ही इसके लिए जरूरी खादों का उत्पादन होता है।
मजेदार यह है कि दलहन खेती के लिए जरूरी सिंगल सुपर फास्फेट और फास्फोरस वाली खादें बनती ही नहीं है। क्यों कि खाद कंपनियों को इसमें फायदा नहीं होता। दलहन फसलों की खेती भी वहीं होती है जहां की जमीन सबसे खराब होती है। किसान जानबूझकर अच्छे खेतों में इसकी बुवाई नहीं करता है। खासतौर पर इसकी खेती असिंचित क्षेत्रों में ज्यादा होती है। भला कहां से बढ़ेगी दलहन की उत्पादकता? उत्पादकता का आलम यह है कि हम बांग्लादेश और श्रीलंका से भी पीछे हैं।