मिले हर हाथ को काम

अर्थकाम पर अपने ही प्रयासों को पूरा होता हुआ देख रहा हूँ। मैं कई बार खुद के हिन्दी भाषी होने पर परेशान हो उठता हूं। आर्थिक बुद्धिमता देश के युवा के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। इसके अभाव में देश का युवावर्ग आज बेरोजगारी और अकर्मण्यता के भीषण दौर से गुजर रहा है। कहीं एक रोजगार विज्ञप्ति निकलती है तो आवेदकों की तादाद देखकर सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि भविष्य क्या हो सकता है।

आज की हकीकत यह है कि विज्ञान व तकनीक के विकास के द्वारा हजारों हाथ का काम मशीनें करने लग गई हो और दिमाग का काम कम्प्यूटर करने लगे हों तो प्रत्येक नियोजक व्यक्ति के स्थान पर मशीन अथवा कम्प्यूटर का ही चुनाव करेगा। लगभग 50 करोड़ युवा आबादी काम के लिए कतार में है पर संगठित क्षेत्र की सरकारी व गैर सरकारी नौकरियां मात्र दो करोड़ ही है। शेष युवाओं के लिए कहीं कोई प्रभावी कार्यक्रम दिखाई नही दे रहा। प्रत्येक हाथ में बुलडोजर या कम्प्यूटर दिया जाना समझदारी नही है। कोई समय था जब अधिक लोगों के काम करने और अधिक समय तक काम के अभ्यास से उत्पादन की मात्रा व गुणवत्ता दोनों बढती थी, पर अब मशीनें व कम्प्यूटर हटा कर हाथों को काम देने की जिद की जाती है तो उत्पादन व गुणवत्ता दोनों में ही गिरावट आ जाएगी क्योंकि बटन दबाते ही पलक झपकते सैंकड़ों आदमियों का काम एक मशीन कर लेती हो।

दुनिया के समस्त प्राकृतिक संसाधनों पर पैसे की छाप पड़ चुकी है। आज पानी और हवा भी बिना पैसे मिलना सम्भव नही है, जबकि कोई समय था जब दूध-घी तक बेचना पाप समझा जाता था। आपसी सहयोग से गांव के नए परिवार के लिए मुफ्त मकान तक बन जाया करते थे। आज कोई सोचे कि मैं संन्यास लेकर अकेला जीवनयापन कर लूंगा तो जंगल में पेट भरने की कोशिश तो फोरेस्ट ऑफिसर उसे वन्य सम्पदा को नुकसान पहुंचाने के आरोप में घेर लेगा।

भुखमरी के कारण अपराधों व आत्महत्याओं का दौर लगातार बढ़ रहा है। अधिकांश सरकारी कर्मचारी व अधिकारी भी अपने ही परिवार के पचासों युवाओं को यहां तक कि अपने ही बच्चों को इच्छा होते हुए भी किसी प्रकार का सहयोग करने में असमर्थ हैं। कोई समय था कि आदमी काम करता था तो उत्पादन भी बढ़ता था और गुणवता भी अभ्यास के कारण बढ़ती थी। आज तकनीक के युग में अगर परम्परागत नजरिये से रोजगार मांगा जाता है तो इसका अर्थ होगा मशीनें हटाई जाएं, आदमी काम करे? फिर तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में हम पिछड़ जाएंगे। अपने हाथ का बना कपड़ा हम खुद ही नही पहनेंगे तो भला पड़ोसी बाजार में कैसे बेचेंगे?

युद्ध तो आजकल बाजारों में होता है सीमाओ पर तो शांतिदूत व मानवाधिकार आयोग वाले बैठे हैं। युद्ध के व्यापारियों ने अपने सारे संसाधन आंतरिक सुरक्षा उपकरणों के निर्माणों में झौंक दिए हैं। भौगोलिक सीमाओं से अब देश परिभाषित ही नही होते।

– सुरेश कुमार शर्मा (लेखक युवा परामर्श नामक संगठन के केंद्रीय संयोजक हैं। उनका अपना एक ब्लॉग भी है।

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