रिज़र्व बड़ा, बोले कम, काम ज्यादा, अधूरा काम उसे जो करना है पूरा

फिराक़ गोरखपुरी की महशूर लाइनें हैं – अब अक्सर चुप-चुप से रहे है, यूं ही कभू लब खोले है; पहले फिराक़ को देखा होता, अब तो बहुत कम बोले है। भारतीय रिजर्व बैंक से रघुराम राजन के जाने के बाद कुछ ऐसी ही कमी कम से कम कुछ महीनों तक तो सालती ही रहेगी। इसलिए नहीं कि वे बिना लाग-लपेट बेधड़क अपनी बात रख देते थे, बल्कि इसलिए कि आज के नौकरशाही तंत्र में उनकी जैसी बौद्धिक ईमानदारी मिलना मुश्किल है और उन्होंने जो कहा और किया, वो देश के आर्थिक व मौद्रिक तंत्र के केंद्रीय स्तंभ की स्वायत्तता व विश्वसनीयता को कायम रखने के लिए बेहद ज़रूरी था।

उन्हें एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक प्रतीक के रूप में देखा जाएगा जिसने रिजर्व बैंक के स्वतंत्र कार्यभार व दायित्व से पूरे देश को वाकिफ कराया। वरना, अभी तक तो यही माना जाता था कि रिजर्व बैंक का गवर्नर महज एक नौकरशाह है जिसका रहना या न रहना प्रधानमंत्री व वित्त मंत्री की खुशी पर निर्भर है और जिसका काम केंद्र सरकार की जी-हुजूरी करना है। जाते-जाते अपने आखिरी भाषण में गवर्नर राजन ने कहा कि रिजर्व बैंक की ‘ना’ कहने की क्षमता की हिफाजत की जानी चाहिए। हालांकि उनका यह भी कहना था कि रिजर्व बैंक को सरकार द्वारा बनाए गए फ्रेमवर्क के तहत काम करना होगा और उसके कामों पर बराबर सवाल उठाया जा सकता है। लेकिन रिजर्व बैंक के गवर्नर को अगर देश में आर्थिक नीति का ज़िम्मा संभालने वाले सबसे अहम टेक्नोक्रेट का ओहदा दिया गया है तो उसकी गरिमा बनाए रखी जानी चाहिए।

राजन को क्यों यह सब कहना पड़ा, इसके राजनीतिक कारण सबको पता हैं। लेकिन शायद ज्यादातर लोगों को नहीं पता कि दिल्ली में वित्त मंत्रालय के नौकरशाहों की सशक्त लॉबी कैसे उनके पंख कुतरने में लगी हुई थी। बौनों को कभी भी अपने बीच कद्दावर शख्स अच्छा नहीं लगता। शायद ऐसी ही खींचतान के बीच भारत सरकार अभी तक रिजर्व बैंक के गवर्नर की रैंक तय नहीं कर पाई है, जबकि देश के इस केंद्रीय बैंक को बने हुए 81 साल हो चुके हैं। विश्व स्तर पर चलन है कि जी-20 जैसे समूहों की बैठक में देश के वित्त मंत्री के साथ उसी मेज़ पर वहां के केंद्रीय बैंक का गवर्नर या चेयरपर्सन भी बैठता है। वजह यह है कि अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाली अहम नीतियों में उसका खास योगदान होता है।

उसकी महत्ता निश्चित रूप से सरकार के किसी भी अन्य नियामक या कैबिनेट सचिव तक से ज्यादा है। अपने यहां रिजर्व बैंक के गर्वनर का वेतन कैबिनेट सचिव के बराबर है। लेकिन उसकी रैंक सरकारी पदानुक्रम में परिभाषित नहीं है। इसलिए विभिन्न सरकारी अधिकारी रिजर्व बैंक की गतिविधियों की नुक्ताचीनी ही नहीं करते, बल्कि उसमें दखल भी करते हैं जबकि उन्हें वित्तीय व मौद्रिक मामलों की तकनीकी समझ नहीं होती। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि रिजर्व बैंक सरकार से कुछ लेने के बजाय हर साल उसे हज़ारों करोड़ रुपए देता है। जैसे, उसने पिछले वित्त वर्ष 2014-15 में केंद्र सरकार को अपने बचे हुए कोष से 65,896 करोड़ रुपए दे दिए थे, जबकि बीते वित्त वर्ष 2015-16 में उसने 65,876 करोड़ रुपए दिए हैं। हाल ही में वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन ने सुझाव दिया कि रिजर्व बैंक को इसके ऊपर से विशेष लाभांश सरकार को देना चाहिए।

राजन इस तरह के दबावों से बिना किसी का पक्ष लिए निर्भीक अंदाज़ में लड़ते रहे। क्या यह सिलसिला आग भी चलता रहेगा? उनकी जगह आए उर्जित पटेल भी एक प्रोफेशनल व स्वतंत्र सोच वाले अर्थशास्त्री हैं। इसलिए उनसे यह क्रम जारी रखने की अपेक्षा की जा सकती है। लेकिन उससे ज्यादा गंभीर सवाल यह है कि घनघोर राजनीतिक दबाव के आगे क्या वे अपनी निष्पक्षता बनाए रख पाएंगे। वैसे, उर्जित पटेल ने सरकार में अपने संगी-साथियों को साधना शुरू कर दिया है। कुछ दिन पहले ही उन्होंने नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया से लंबी मुलाकात की है जो दशकों से उनके दोस्त रहे हैं।

नोट करने की बात यह है कि उर्जित पटेल में उद्योग जगत का पूरा विश्वास है। मौजूदा नीतिगत बदलावों में भी उप-गवर्नर रहते हुए उन्होंने अहम भूमिका निभाई है। अभी उपभोक्ता सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति या रिटेल मुद्रास्फीति को रिजर्व बैंक ने ब्याज दर करने का जो आधार बनाना है, उसकी संस्तुति उर्जित पटेल समिति ने ही थी। नहीं तो तब तब सारी दुनिया के विपरीत अपने देश ने थोक मूल्य मुद्रास्फीति को आधार बना रखा था। राजन की तरह वे भी इसी राय के हैं कि केंद्रीय बैंक का मुख्य काम मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखना है। सरकार ने अब बाकायदा छह सदस्यों की मौद्रिक नीति समिति बना दी है जिसमें गवर्नर समेत तीन सदस्य रिजर्व बैंक के होंगे और तीन सदस्य केंद्र सरकार चार साल के लिए चुनेगी। ब्याज दर का फैसला इस समिति की बैठक में बहुमत से होगा। अगर बराबर वोट पड़े तभी अंतिम फैसला रिजर्व बैंक के गर्वनर को करना होगा, अन्यथा उसकी हैसियत समिति के मात्र एक सदस्य की होगी।

जाहिर है कि सरकार ने परोक्ष रूप से  रिजर्व बैंक गवर्नर को बांधने की कोशिश की है। सरकार ने यह भी तय कर दिया है कि रिटेल मुद्रास्फीति की दर अगले पांच साल तक 4 प्रतिशत या उसके दो प्रतिशत ऊपर-नीचे यानी 2 से 6 प्रतिशत के दायरे में रहनी चाहिए। इसे सुनिश्चित करने का ज़िम्मा रिजर्व बैंक गवर्नर का है। सवाल उठता कि प्याज या दाल जैसे जिन उत्पादों के दाम मुद्रा की उपलब्धता कम या ज्यादा होने से नहीं, बल्कि पैदावार और उसका प्रबंध ठीक से न होने के कारण उठते-गिरते हैं, उन पर रिजर्व बैंक कैसे अंकुश लगा पाएगा। राजनीति आका इन स्थितियों में रिजर्व बैंक पर सवाल उठाने लगेंगे।

फिर भी रिजर्व बैंक को मुद्रास्फीति ही नहीं, सरकार के ऋण से लेकर रुपए की विनिमय दर तक की देखभाल करनी होगी। यह दायित्व निभाने में राजनीति से उसका टकराव होना तय है। इसमें भी असली चुनौती यह होगी कि सरकार सारा कुछ जनता के नाम पर करेगी, भले ही उससे जनता का नहीं, किसी और का भला होता हो। राजन ने इस चुनौती का मुकाबला बखूबी किया। लेकिन वे रिजर्व बैंक की विश्वसनीयता को एक हद तक ही स्थापित कर पाए हैं। उर्जित पटेल को इसे मंज़िल तक पहुंचाना है। बताते हैं कि उनकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे रिजर्व बैंक की तरफ बोलते कम और काम ज्यादा करते हैं।

(यह लेख प्रभात खबर के 12 सितंबर 2016 के अंक में संपादकीय पेज़ पर छपा है)

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