सुखी हैं, संपन्न हैं। लेकिन खुश कौन है? जो जितना मुक्त है, उतना खुश है। और, किसी चीज को जान लेना उससे मुक्त हो जाना है। इस हद तक जान लेना कि सवालों से निकलने वाली हर कड़ी सुलझ जाए।और भीऔर भी

कुछ न जानने पर भी काम तो चल ही जाता है। लेकिन जानने से जिंदगी आसान हो जाती है। मानव समाज के अब तक के संघर्षों से हासिल लाभ हमें मिल जाता है और हम तमाम फालतू परेशानियों से बच जाते हैं।और भीऔर भी

सच कहें तो धंधा और कुछ नहीं, बस दूसरों से जुड़ने की कोशिश है। उस समान चीज को पकड़ने का उपक्रम है जो सबमें है, सबकी जरूरत है। कंपनियां सर्वे से इसका पता लगाती हैं और ज्ञानी अपनी अंतर्दृष्टि से।और भीऔर भी

हम भावनाओं के भूखे हैं। सिर्फ लेना चाहते हैं, देना नहीं। ज्ञान में ठीक इससे उलट हैं। सिर्फ देना चाहते हैं लेना नहीं। काश! ज्ञान के मामले में हम शाश्वत भिक्षु बन जाते और भावनाओं के मामले में दानवीर कर्ण। आमीन!और भीऔर भी

पैसा बांटने से घटता है। लेकिन ज्ञान को जितना बांटों,  बढ़ता जाता है। ज्ञान तो शहद की तरह है। फूल से निकलता है तो बढ़ता ही है। मधुमक्खियां उसे ले जाकर पूरा छत्ता ही बना लेती हैं।और भीऔर भी

ज्ञान और धन, दोनों ही बिना जोखिम उठाए नहीं मिलते। यह आज का नहीं, बल्कि शाश्वत सच है। संत कबीर भी कह चुके हैं कि जिन ढूंढा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठि; मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठि।और भीऔर भी

कविवर बिहारी का यह दोहा आपको भी याद होगा कि रे गंधि! मतिअंध तू, अतरि दिखावत काहि, कर अंजुरि को आचमन, मीठो कहत सराहि। सुगंध बेचनेवाले तू इन लोगों को इत्र दिखाने की मूर्खता क्यों कर रहा है। ये लोग तो इत्र को अंजुरी में लेकर चखेंगे और कहेंगे कि वाह, कितनी मीठी है। लेकिन कभी-कभी मूर्खता दिखाने में भी फायदा होता है। कैसे? तो… आपको एक कहानी सुनाता हूं। एक समय की बात है। उज्जैनी राज्यऔरऔर भी

बात सोची। आजमाई नहीं। उड़ गई। क्या फायदा? ज्ञान को व्यवहार की कसौटी पर कसना जरूरी है। इसी से उसके सही या गलत होने का पता भी चलता है। नहीं तो हम भ्रम में ही पड़े रहते हैं, खुद को सही माने बैठे रहते हैं।और भीऔर भी