सेबी ने सहारा इंडिया के कामकाज पर उठाई उंगली, मनी लॉन्ड्रिंग का संदेह

पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी द्वारा सहारा समूह की दो कंपनियों – सहारा इंडिया रीयल एस्टेट कॉरपोरेशन और सहारा हाउसिंग इनवेस्टमेंट कॉरपोरेशन के खिलाफ सुनाया गया आदेश 66 लाख निवेशकों को ब्याज समेत उनका धन लौटाने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें समूह और उसके मुखिया सुब्रत रॉय के कामकाज पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं और अंदेशा जताया गया है कि इन कंपनियों में बड़े पैमाने पर मनी लॉन्डिंग हो रही है।

सेबी के पूर्णकालिक निदेशक डॉ. के एम अब्राहम की तरफ से सुनाए गए 99 पेज के विस्तृत फैसले में यह मुद्दा भी उठाया गया है कि हमारे वित्तीय नियमन में कहां-कहां खामियां रह गई हैं और उसके सामने क्या चुनौतियां हैं। फैसले में बताया गया है कि रिजर्व बैंक ने समूह की रेजिडुअरी नॉन बैंकिंग कंपनी (आरएनबीसी) के रूप में दर्ज, सहारा इंडिया फाइनेंशियल कॉरपोरेशन को 17 जून 2008 से ही ऐसा कोई भी नया डिपॉडिट लेने से मना कर रखा है जो 30 जून 2011 के बाद परिपक्व होते हों। साथ ही कंपनी मौजूदा डिपॉजिट की नई किश्तें भी नहीं ले सकती। रिजर्व बैंक ने पूरा एक रोडमैप बनाया है कि कैसे जमाकर्ताओं के प्रति कंपनी की कुल देनदारी (एएलडी) जून 2015 तक शून्य पर ले आई जाए। रिजर्व बैंक ने जांच में पाया था कि कंपनी निर्धारकों मानकों और नियमों का पालन नहीं करती।

सेबी के फैसले के केंद्र में सहारा समूह की दो कंपनियां हैं जिन्होंने ओएफसीडी (ऑप्शनली फुली कनवर्टिबल डिबेंचर) के जरिए मार्च 2008 और अक्टूबर 2009 में 20-20 हजार करोड़ रुपए जुटाने की पेशकश की थी। सहारा की तरफ से पहले कहा गया कि ये ओएफसीडी प्राइवेट प्लेसमेंट के तहत जारी किए गए हैं और इनमें निवेशकों की कुल संख्या 50 से कम है। लेकिन सेबी का कहना है कि ये प्राइवेट प्लेसमेंट नहीं, बल्कि पब्लिक इश्यू है और इनमें निवेशकों की संख्या ज्यादा है। सहारा की तरफ से साफ न जानकारी न दिए जाने पर सेबी ने 24 नवंबर 2010 को जारी आदेश में इन कंपनियों समेत सहारा प्रमुख सुब्रत रॉय व उनके कुछ सहयोगियों पर किसी भी रूप से पब्लिक से धन जुटाने पर रोक लगा दी।

सहारा ने सेबी के आदेश को अदालत में चुनौती दे दी और फिर कार्यवाही के दौरान मामले की परत-दर-परत खुलती चली गई। मुकदमे की सुनवाई इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट, दोनों जगह चल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने 12 मई 2011 के अपने सबसे नए आदेश में सेबी को कहा था कि वह इस मामले पर फैसला सुनाए, लेकिन उस पर अमल का फैसला सुप्रीम कोर्ट करेगा। सेबी के इसी आदेश का पालन करते हुए तय किया है कि  सहारा इंडिया रीयल एस्टेट और सहारा हाउसिंग इनवेस्टमेंट को ओएफसीडी के 66 लाख निवेशकों को उनका धन 15 फीसदी ब्याज के साथ लौटाना होगा। यह अदायगी चेक के रूप में नहीं, बल्कि डिमांड ड्राफ्ट/पे ऑर्डर के रूप में नकद की जाएगी।

सेबी ने इस फैसले की प्रति तत्काल सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार के पास भेज दी है। अगर सुप्रीम कोर्ट इसे स्वीकार कर लेता है, जिसकी संभावना ज्यादा है तो यह सहारा समूह के लिए मुसीबत का सबब होगा क्योंकि उसे एकमुश्त कई हजार करोड़ रुपए लौटाने होंगे। वैसे, सेबी और अदालत के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि सहारा की इन कंपनियों ने यह तक नहीं बताया है कि उनके ओएफसीडी इश्यू खुले हैं कि बंद हो चुके हैं। सेबी ने इस संदर्भ में सहारा की अन्य कंपनी, सहारा इंडिया कॉमर्शियल कॉरपोरेशन का जिक्र किया है जिसने 17,250 करोड़ रुपए का इश्यू दस साल तक खुला रखा था।

सहारा इंडिया रीयल एस्टेट कॉरपोरेशन ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में सुनवाई के दौरान यह बताकर सबसे चौंका दिया था कि उसके निवेशकों की संख्या 66 लाख है। देश की सबसे बड़ी कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज तक के शेयरधारकों की कुल संख्या 35.22 लाख है। सहारा इंडिया रीयल एस्टेट की सबसे ताजा 30 जून 2009 तक की बैलेस शीट में बताया गया है कि ओएफसीडी के जरिए उसने 4843.37 करोड़ रुपए जुटाए हैं। इसके बाद का कोई पता नहीं है। लेकिन दूसरी कंपनी सहारा हाउसिंग इनवेस्ट कॉरपोरेशन ने न तो निवेशकों की संख्या के बारे में कोई जानकारी दी है और न ही ओएफसीडी के जरिए जुटाई गई कुल रकम की। इसलिए सेबी को भी अंधेरे में तीर मारना पड़ा है कि सहारा समूह की इन दो कंपनियों की कुल देनदारी कितने की बनती है।

सेबी ने अपने आदेश में बताया है कि ओएफसीडी में निवेश राशि का चेक इन्हें जारी करनेवाली कंपनियों के बजाय सहारा इंडिया के नाम से लिया जाता था। फिर इन डिबेंचरों को लाते वक्त इनमें से सहारा इंडिया रीयल एस्टेट की नेटवर्थ ऋणात्मक थी, जबकि सहारा हाउसिंग इनवेस्ट की नेटवर्थ 11 लाख रुपए के आसपास थी। ऐसे में ये कंपनियां कैसे निवेशकों से 40,000 करोड़ रुपए जैसी विशाल रकम जुटा सकती थीं? सेबी का कहना है कि असल में इनका मकसद किसी परियोजना के लिए धन जुटाना नहीं, बल्कि पैरा बैंकिंग जैसी स्कीम चलाना था। इसीलिए वे किसी भी तरह की निगरानी और पारदर्शिता से बचती रहीं। जिस तरह उन्होंने लोगों से धन जुटाया है, वह मनी लॉन्ड्रिंग का आसान तरीका हो सकता है। सेबी ने इस संबंध में मुंबई में की गई तहकीकात का उदाहरण दिया है जिसमें कंपनी के बताए गए निवेशकों के पते-ठिकाने गलत निकले।

सेबी ने सहारा प्रमुख सुब्रत रॉय को भी अपने आदेश में आड़े-हाथों लिया है। सुब्रत रॉय ने 20 मई 2011 को कारण बताओ नोटिस के जवाब में कहा था कि वे इन दो कंपनियों के मात्र शेयरधारक हैं और किसी में भी न तो निदेशक हैं न ही किसी अन्य प्रबंधकीय जिम्मेदारी में। लेकिन सेबी का कहना है कि जब सुब्रत रॉय के पास इन दोनों कंपनियों की 70 फीसदी शेयर पूंजी है तो इनके कृत्य से खुद को अलग नहीं रख सकते हैं और ये कंपनियों इनकी जानकारी के बगैर कुछ नहीं कर सकती थीं।

सेबी ने सुब्रतो रॉय के साथ इन कंपनियों के निदेशकों में शामिल वंदना भार्गव, रविशंकर दुबे और अशोक रॉय चौधरी पर भी बंदिश लगाई है कि जब तक ओएफसीडी के सभी निवेशकों का धन लौटा नहीं दिया जाता, तब तक वे किसी भी लिस्टेड पब्लिक कंपनी या जनता से धन जुटाने की योजना रखनेवाली किसी कंपनी से वास्ता नहीं रख सकते। सेबी के आदेश पर अमल की तारीख तय होने के 15 दिन के भीतर सहारा की दोनों कंपनियों को व्यापक सर्कुलेशन वाले राष्ट्रीय स्तर के एक अंग्रेजी और एक हिंदी अखबार में रिफंड का पूरा ब्यौरा छपवाना होगा।

सेबी का आदेश पेश करते वक्त उसके पूर्णकालिक निदेशक डॉ. के एम अब्राहम ने पूंजी बाजार व निवेश से संबंधित कई बुनियादी सवाल उठाए हैं। इन्हें तफ्सील से पेश करने के बाद उन्होंने कहा है, “यह सभी बेहद महत्वपूर्ण सवाल हैं। लेकिन जाहिरा तौर पर, ये सभी सेबी के नियमन दायरे में नहीं आते और इनके लिए विभिन्न नियामकों के बीच सहयोग व समन्वय की जरूरत है। फिर भी मेरा मानना है कि ये बहुत ही गंभीर सवाल हैं जिन्हें वित्तीय बाजारों के संचालन की व्यवस्था को आकार देने में लगा हमारा देश नजरअंदाज नहीं कर सकता। इसलिए मैं सेबी को इस आदेश की प्रतियां वित्त मंत्रालय, कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय, भारतीय रिजर्व बैंक, केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड और प्रवर्तन निदेशालय को भेजने का निर्देश देता हूं ताकि सरकार की ये शाखाएं जैसा जरूरी समझें, वैसी आगे की कार्रवाई कर सकें।”

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