अपैल खत्म, मई आ गया। अप्रैल में तो शेयर बाजार कंपनियों के नतीजों के हिसाब से डोलता रहा। जिन कंपनियों ने उम्मीद से बेहतर नतीजे घोषित किए, उनके शेयर ठीकठाक चले, जबकि जो कंपनियां बाजार की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरीं, उनके शेयरों को तोड़ दिया गया। इनमें रिलायंस इंडस्ट्रीज, इनफोसिस व सेल जैसी कंपनियां शामिल हैं। ऐसा होना एकदम स्वाभाविक था। इसलिए इसमें किसी अचंभे की बात नहीं है। वैसे, अभी अगले दो हफ्ते तक मिड कैप व स्मॉल कैप कंपनियों के नतीजे आते रहेंगे।
मंगलवार को रिजर्व बैंक नए वित्त वर्ष 2011-12 की सालाना मौद्रिक नीति घोषित करने जा रहा है। ब्याज की दरों में चौथाई से लेकर आधा फीसदी वृद्धि का अंदेशा है। इसे बहाना बनाकर पिछले तीन दिनों में बाजार को गिराकर फिर से 200 दिनों के मूविंग औसत (डीएमए) व साधारण मूविंग औसत (एसएमए) पर ले आया गया। बाजार कारोबारियों को अपेक्षा है कि रिजर्व बैंक इस बार रेपो व रिवर्स रेपो दरों में आधा फीसदी की वृद्धि करेगा। इसलिए अगर ऐसा होता है तो बाजार मौद्रिक नीति की घोषणा के बाद बढ़ना चाहिए क्योंकि जितना गिरना है, वो पहले ही गिर चुका होगा।
हमें भारतीय शेयर बाजार की असली समस्या को समझना होगा। डे-ट्रेडिंग और फ्यूचर्स व ऑप्शंस में लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है। लेकिन कैश सेगमेंट में घटती जा रही है। पिछले कुछ सालो में बीएसई के कैश सेगमेंट में रोजाना का डिलीवरी आधारित कारोबार 15,000 करोड़ रुपए से घटकर 3000 करोड़ रुपए पर आ चुका है। एनएसई के भी कैश सेगमेंट में कमोबेश यही स्थिति है। दोनों एक्सचेंजों को मिला दें तो 12,000 से 15,000 करोड़ रुपए के वोल्यूम में से 70 फीसदी हिस्सा एफआईआई की बल्क डील्स से आता है। यह हमारे बाजार की स्थिति को साफ कर देता है। असल में, बाजार के छिछलेपन के चलते एफआईआई को कुछ स्तरीय स्टॉक्स से निकलने में बड़ी मुश्किल हो रही है। फिर भी वे निकलते हैं तो स्टॉक 10 से 20 फीसदी लुढ़क जाता है।
ऐसा आर्थिक स्थितियों के चलते है या इसकी कोई अन्य वजह है। इसका गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए। मुझे लगता है कि वाजिब वित्तीय इंफ्रास्ट्रक्चर का अभाव इसकी प्रमुख वजह है। निवेशक बार-बार आने के लिए जोर मारते हैं। लेकिन गच्चा खाने के बाद वापस अपनी खोल में लौट जाते हैं। वैसे, हमारे पूरे औद्योगिक इंफ्रास्ट्रक्चर का यही हाल है। पिछले छह सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था दो लाख करोड़ डॉलर की हो चुकी है। लेकिन इसे टिकाए रखने का तंत्र ढीलाढाला है। बजट में इंफ्रास्ट्रक्चर पर 2.54 लाख करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान है। समस्या यह है कि यह कैसे-कहां खर्च किया जाएगा और इसका सही परिणाम निकलेगा भी कि नहीं? राष्ट्रमंडल खेलों पर 70,000 करोड़ रुपए खर्च हो गए। लेकिन आप सभी जानते हं कि इसमें से कितना वास्तव में खर्च हुआ और कितना खड्डे में गया। अगर इंफ्रास्ट्रक्चर पर तय रकम सही तरीके से खर्च कर दी गई तो भारत को चीन की विकास दर से आगे निकलने देर नहीं लगेगी।
कॉरपोरेट क्षेत्र भी फ्रॉड व घोटालों से अछूता नहीं है। एचसीसी, अनिल धीरूभाई अंबानी समूह, यूनिटेक और बहुत-सी दूसरी कंपनियां 2जी घोटाले या जमीन के विवादों में उलझी हैं। एसडी एल्यूमीनियम जैसी कंपनियों ने कॉरपोरेट फ्रॉड की डगर खोली है। फिर भी वे बेदाग हैं। क्यों? आप आसानी से इनका अनुमान लगा सकते हैं। उनके प्रवर्तकों ने सरकारी संस्थान बीआईएफआर (बोर्ड फॉर इंडस्ट्रियल एंड फाइनेंशियल रीकंस्ट्रक्शन) को साधकर आम निवेशकों के हितों के साथ घात किया। एसडी ने इंडिया फॉयल्स में यही खेल किया। वित्त मंत्रालय, कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय, स्टॉक एक्सचेंज और सेबी में से कोई भी छोटे निवेशकों के हित में आगे नहीं आया। और, इन बिखरे-बिखरे निवेशकों के पास हाईकोर्ट में जाने की कुव्वत नहीं है।
प्रवर्तक मन-बढ़ हो गए। अब ऐसा ही खेल वीआईपी समूह की कंपनी विंडसर मशींस में हुआ है। बीआईएफआर की मदद से रिटेल निवेशकों पर मार की गई है। असल में बीआईएफआर कॉरपोरेट क्षेत्र के हाथ की कठपुतली बन गया है। सरकार की आंखें बंद है तो हर किसी के मजे हैं। आईपीओ में भी निवेशकों के साथ घात हो रहा है। गलत मूल्य या पहले से से बेच देने के कारण आईपीओ लानेवाली कंपनी के शेयर 80 फीसदी तक गिर जाते हैं। प्रवर्तकों व ऑपरेटरों की मिलीभगत के इस खेल के चलते रिटेल निवेशकों का भरोसा प्राथमिक बाजार से उठ गया है।
डेरिवेटिव सौदों में स्टॉक ऑप्शन व फ्चूचर्स में फिजिकल सेटलमेंट के अभाव के चलते भी ऑपरेटरों का खेल चल पा रहा है। फिजिकल सेटलमेंट होने से आम निवेशकों को बाजार में खींचा जा सकता है। इसे कैश सेगमेंट में गहराई आएगी और डेरिवेटिव सेगमेंट में उतार-चढ़ाव कम होगा। बाजार में इतनी गहराई व विस्तार होना चाहिए कि सभी को आसानी से निकलने का मौका मिल सके। बाजार में कुछ ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि सेंसेक्स या निफ्टी में लोअर सर्किट लगने के समय बी ग्रुप के शेयरों में सर्किट की सीमा अपने-आप बदल जाए। बी ग्रुप से निकलने का अवसर मिलेगा तो ए ग्रुप के शेयरों पर बिकवाली का दबाव कम हो जाएगा।
थोड़े में कहा जाए तो पूंजी बाजार में वित्तीय सुधारों की दरकार है। खासकर तब, जब हम सेंसेक्स के ईपीएस (प्रति शेयर लाभ) व मूल्यांकन के मामले में हर साल 20 फीसदी की दर से विकास कर रहे हों। क्रिकेट मैचों या हिट फिल्म की क्या कीमत रह जाएगी, अगर उसे देखनेवाले ही न मिलें? इसी तरह रिटेल निवेशक पूंजी बाजार की मेरुदंड हैं और हम इन्हीं को सबसे कम वरीयता दे रहे हैं। बिना वाजिब सुरक्षा दिए उनको शिक्षित करके हम क्या करेंगे?
देश में उपभोक्ता अदालतों की तरह छोटे निवेशकों के मामले सुलझाने के लिए विशेष व द्रुत अदालतों का गठन किया जाना चाहिए। इससे बाजार व कॉरपोरेट क्षेत्र के फ्रॉड रुकेंगे और निवेशकों की हितों की हिफाजत होगी। कम से कम निवेशकों के हितों की पहरेहार होने की माला जपनेवाली सेबी को अपनी सक्रियता बढ़ानी होगी। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक शेयर बाजार को लॉटरी टिकट समझने की आम लोगों की धारणा को नहीं बदला जा सकता।