चीनी देश का इकलौता उद्योग है जहां बीस साल पहले उठी उदारीकरण की बयार अभी तक नहीं पहुंची है। कच्चे माल, गन्ने की कीमत सरकार तय करती है। केंद्र ही नहीं, राज्य सरकारों तक का इसमें दखल रहता है। फिर अंतिम उत्पाद, चीनी का एक हिस्सा लेवी के बतौर सरकार खुद तय की गई कीमत पर ले लेती है। सरकार के इतने अंकुश के बावजूद हालात दुरुस्त नहीं हैं और किसानों व चीनी मिलों में ठनी रहती है तो अदालतों तक को हस्तक्षेप करना पड़ता है।
संभावना की बात करें तो शायद चीनी इकलौता ऐसा उद्योग है जो गांवों पर निर्भर देश की 70 फीसदी आबादी की ज़िंदगी में स्थाई रोशनी भर सकता है। गन्ने से चीनी, बेकार बचे शीरे से अल्कोहल, बेकार निकली खोई से कागज व बायो-कम्पोस्ट और उत्पादन प्रक्रिया में इस्तेमाल होनेवाली भाप से बिजली। पूरा एक चक्र है जो पर्यावरण ही नहीं, किसानों व उद्योग दोनों के हित में है। हर चीनी मिल अपने आसपास के गांवों को बिजली दे सकती है। आसपास के श्रमिकों को रोज़गार दे सकती है। ऑस्ट्रेलिया और ब्राजील जैसे देशों में इसका कामयाब मॉडल मौजूद है। लेकिन राजनीतिक दांवपेंच का शिकार भारतीय चीनी उद्योग पिछले दो दशकों से त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहा है। इधर, फिर प्रधानमंत्री ने अपनी आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन सी रंगराजन की अध्यक्षता में चीनी उद्योग के लिए कल्याण के लिए एक कमिटी बना दी है। देखिए! क्या होता है?
इन दवाबों व राजनीतिक दखलंदाजी के बीच भी अगर हमारी चीनी मिलें डटी हुई हैं तो हमें उनकी उद्यमशीलता व जीवट की दाद देनी चाहिए। आज चर्चा बलरामपुर चीनी मिल्स की। यह देश की सबसे बड़ी एकीकृत चीनी कंपनियों में शुमार है। चीनी के अलावा बाय-प्रोडक्ट के रूप में अल्कोहल, बिजली और बायो-कम्पोस्ट तक बनाती है। विवेक सरावगी इसके प्रबंध निदेशक हैं। मुख्यालय कोलकाता में है। लेकिन कंपनी की दस की दस चीनी मिलें उत्तर प्रदेश में हैं। चीनी या गन्ना पेराई की क्षमता 76,500 टन प्रतिदिन, अल्कोहल बनाने की डिस्टिलरी की क्षमता 320 किलोलीटर प्रतिदिन और बिजली उत्पादन क्षमता 126 मेगावॉट है।
चीनी उद्योग में पेराई का साल अक्टूबर से सितंबर तक का होता है। लेकिन कंपनी का अपना वित्त वर्ष पिछले साल से सबके जैसा अप्रैल से मार्च तक का कर लिया है। कंपनी ने मार्च 2011 में खत्म वित्त वर्ष 2010-11 में 2972.39 करोड़ रुपए की बिक्री पर 164.41 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ कमाया था। मार्च 2011 की तिमाही में तो उसका शुद्ध लाभ 309.36 फीसदी बढ़ गया था। लेकिन चालू वित्त वर्ष में अब तक कंपनी की हालत खराब चल रही है। जून 2011 की तिमाही में उसे 19.86 करोड़ और सितंबर 2011 की तिमाही में 39.44 करोड़ रुपए का शुद्ध घाटा हुआ है।
इसी हफ्ते सोमवार, 30 जनवरी 2012 को उसने दिसंबर 2011 की तिमाही के नतीजे घोषित किए हैं। इनके मुताबिक बिक्री के 24.79 फीसदी बढ़कर 662.08 करोड़ रुपए हो जाने के बावजूद उसे 64.01 करोड़ रुपए का घाटा हुआ है। असल में 17 जनवरी 2012 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश सुनाया कि उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों को पेराई वर्ष 2006-07 और 2007-08 के गन्ने के मूल्य का अंतर तीन महीने के भीतर किसानों को चुकाना होगा। 2006-07 के लिए यह अंतर 7 रुपए और 2007-08 के लिए 15 रुपए प्रति क्विंटल है।
कंपनी 2006-07 के लिए कुल 23.50 करोड़ रुपए के अंतर का प्रावधान पहले ही कर चुकी थी, जबकि 2007-08 के लिए उसने करीब 92 करोड़ रुपए की देनदारी का प्रावधान अभी दिसंबर 2011 की तिमाही में किया है। अगर यह आकस्मिक बोझ नहीं पड़ा होता तो दिसंबर तिमाही में उसे 64 करोड़ के घाटे के बजाय 28 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ हुआ होता। खैर, जब तक इस उद्योग में राजनीति की दखलंदाजी जारी है, तब तक चीनी कंपनियों पर इस तरह के जोखिम का साया मंडराता रहेगा।
सवाल उठता है कि क्या इस मौके पर बलरामपुर चीनी मिल्स में निवेश करने का योग बनता है? इसका एक रुपए अंकित मूल्य का शेयर कल, 2 फरवरी को बीएसई (कोड – 500038) में 0.31 फीसदी घटकर 48.75 रुपए और एनएसई (कोड – BALRAMCHIN) में 0.10 फीसदी बढ़कर 48.90 रुपए पर बंद हुआ है। कंपनी ने ठीक पिछले बारह महीनों में घाटा उठाया है तो किसी पी/ई अनुपात का सवाल ही नहीं उठता। हां, उसकी प्रति शेयर बुक वैल्यू 53.07 रुपए है जो उसकी आधारभूत ताकत का प्रमाण है।
कंपनी का शेयर 19 दिसंबर 2011 को 32.70 रुपए की तलहटी पकड़ चुका है, जबकि 52 हफ्तों का उसका उच्चतम स्तर 77.40 रुपए का है जो उसने 8 अप्रैल 2011 को हासिल किया था। आपको यकीन नहीं आएगा कि यह शेयर अक्टूबर 2009 में 168 रुपए का शिखर छू चुका है। जाहिरा तौर पर अभी की स्थिति में कंपनी के चमकने का सारा दारोमदार डिस्टिलरी और बिजली डिवीजन पर है। उसकी ये दोनों ही डिवीजन काफी अच्छा काम कर रही हैं। दिसंबर 2011 की तिमाही में डिस्टिलरी डिवीजन का लाभ पांच गुना और बिजली डिवीजन का लाभ 85 फीसदी बढ़ा है। इन दोनों से उसका ब्याज व टैक्स-पूर्व लाभ 63 करोड़ रुपए का रहा है। यह अलग बात है कि यह सारा लाभ चीनी डिवीजन में गन्ने के बकाया के लिए किए गए 92 करोड़ रुपए के प्रावधान की भेंट चढ़ गया।
ध्यान दें कि नीतिगत स्पष्टता के अभाव में चीनी उद्योग उत्पादन के बढ़ने और घटने के चक्र में घूमता है। कम उत्पादन पर ज्यादा दाम मिलता है तो किसान ज्यादा गन्ना बोते हैं तो ज्यादा चीनी पैदा होती है। लेकिन इसके ज्यादा होते ही दाम गिर जाते हैं तो किसान गन्ना कम बोते हैं और उत्पादन घट जाता है। ब्राजील दुनिया में सबसे ज्यादा चीनी बनाता है। भारत सबसे ज्यादा चीनी खाता है। चीनी खाने में भारत के बाद चीन का नंबर आता है। इस बार ब्राजील में चीनी उत्पादन कम रहने और भारत, यूरोपीय संघ, थाईलैंड व रूस में बढ़ने की उम्मीद है। दुनिया का ज्यादा चीनी उत्पादन चीन खींच लेगा। इसलिए चीनी के दाम के स्थिर रहने की उम्मीद है। ऐसे में बलरामपुर चीनी मिल्स की डिस्टिलरी व बिजली डिवीजन की चमक ने रास्ता थोड़ा साफ कर दिया है। दो साल के नजरिए के साथ अभी इसमें निवेश किया जा सकता है। लेकिन, उद्योग और कंपनी का सारा जोखिम समझने के बाद। यह भी समझने के बाद कि इसके ऊपर राजनीति का फंदा मडराता रहता है और अभी इसकी कार्यस्थली उत्तर प्रदेश में चुनावों के बाद नई सरकार बननेवाली है।