छोटी-सी सूचना देनी थी। सामने होते तो इजाजत भी ले लेता। हफ्ते भर की छुट्टी लेनी है। सोमवार से इतवार तक। फिर सीधे नए साल में 2 जनवरी 2012 को हाजिर हूंगा। इस बीच गाहे-बगाहे कुछ न कुछ लिखता जरूर रहूंगा, लेकिन अनुशासन से मुक्त, छुट्टी की मानसिकता में एकदम बोझ-मुक्त होकर। हां, सुबह-सुबह ऋद्धि-सिद्धि के जरिए आपके मन की दुनिया में कंकड़ फेंकने का सिलसिला अनवरत जारी रहेगा क्योंकि वो तो दिमाग की धुकधुकी है जो दिल धड़कने के साथ चलती ही रहती है। और, दिल का घड़कना तो बस एक बार ही बंद होगा, वो भी हमेशा के लिए। एक बात और। चक्री चूंकि सीएनआई रिसर्च का कॉलम है, इसलिए वो भी बदस्तूर जारी रहेगा। हां, घंटे-आधे घंटे का विलम्ब हो सकता है।
नए साल से नई ऊर्जा से भरकर पूरी तरह आपकी सेवा में फिर से हाजिर हूंगा। आपकी अपेक्षाओं को पूरा करने की पुरजोर कोशिश करूंगा। बस, आप अपनी बारी निभाते रहें तो सब धमाधम चलता रहेगा। हालांकि मेरी अपील के बाद अभी तक तक करीब दो महीने में आपकी तरफ से जो सहयोग आया है, उससे यही लगता है कि ज्यादातर लोग इसी मानसिकता में हैं कि दूसरे लोग तो एक लोटा दूध डाल ही देंगे। नतीजतन सुबह तालाब दूध से नहीं, पानी से लबालब नजर आता है। फिर भी आप में से जिन लोगों ने भी उत्साह बढ़ाया है, उनका मैं तहेदिल से आभारी हूं। जिन्होंने सिर्फ तारीफ से, उनका भी और जिन्होंने तारीफ के मूर्त रूप अंशदान से, उनका भी।
मुझे पता है कि मैं आम देशवासियों को वित्तीय रूप से साक्षर बनाने का काम कर रहा हूं, रोजमर्रा के जीवन की आर्थिक गुत्थियों को खोलने का काम कर रहा हूं। समझ रहा हूं, समझा रहा हूं। अपनी मातृभाषा में आए ठहराव को तोड़ने का काम कर रहा हूं। लोगों को जानकारी व ज्ञान के स्तर पर सबल बनाने का काम कर रहा हूं। इस तरीके से राष्ट्र-निर्माण के अधूरे काम का एक अंश पूरा कर रहा हूं। और, मुझे यकीन है कि धरती वीरों से खाली नहीं है। आज नहीं तो कल, लोग सहयोग देंगे। अभी मेरे ही प्रयास में कुछ कमी रह गई होगी, वरना ‘यूं ही कोई बेवफा नहीं होता।’
चलते-चलते यूं ही प्रसंगवश बता दूं कि करीब दो महीने पहले मैंने अपने कमरे की छोटी से बॉलकनी में दीवार से सटाकर बाघनखी नाम की एक बेल लगाई। इस बेल का स्वभाव है कि वह दीवार या पेड़ से चिपककर उसे छा लेती है। लेकिन अभी तक यह मेरी दीवार से चिपक नहीं सकी है। इसी तरह मुझे लगता है कि अर्थकाम को अगर आपके दिल-दिमाग तक पहुंचने और आपका सहयोग पाने में वक्त लग रहा हैं तो यह स्वाभाविक है। इसलिए कोई गिला-शिकवा नहीं।
मुझे अपने लोगों पर यकीन है। और, यह यकीन हवा में नहीं, मेरे निजी अनुभवों पर टिका है। विश्वविद्यालय की गणित में स्नातकोत्तर की पढ़ाई अधूरी छोड़कर जब मैंने आठ साल तक भूमिहीन किसानों और आदिवासियों के बीच काम किया था तो हर दिन के खाने को मोहताज उन लोगों ने कभी अहसास ही नहीं होने दिया कि मैं अपने परिवार से दूर पराये लोगों के बीच में हूं। मेरा कपड़ा-लत्ता, खाना-पीना, हर जरूरत वे आपस में बांटकर पूरी करते रहे। उन्हें खुद तकलीफ हो जाए, लेकिन साथी को कोई तकलीफ न होने पाए। वंचित लोगों जैसा साथी कोई दूसरा नहीं होता। दुष्यंत के शब्दों में कहूं तो…
न हो कमीज़ तो पांवों से पेट ढंक लेंगे, कितने मुनासिब हैं ये लोग इस सफर के लिए।