पैसे का पेड़ नहीं, बाजार लगता है

कोई कहता है पैसा तो हाथ की मैल है। दूसरा कहता है यह सब हमारे बड़े बुजुर्गों का ढकोसला था और सभी पैसे के पीछे भागते रहे हैं। कुबेर का खजाना, कारूं का खजाना, गड़ा हुआ धन, पैसे का पेड़। न जाने कैसी-कैसी मान्यताएं रहीं हैं अपने यहां। सब समय-समय की बात है। समय बदल चुका है, पैसे की हकीकत भी बदल चुकी है। खुदाई में मिले धन की खबर पुलिस को नहीं दी तो जेल जाना पड़ेगा क्योंकि जमीन में गड़े सारे धन की मालिक सरकार है। लेकिन यह भी हकीकत है कि हम एक साथ समय के अलग-अलग दौर में जी रहे हैं।

बाहरी हालात से सामंजस्य बिठाता है हमारा दिमाग और कोई न कोई वाक्य फेंक देता है। अभी कुछ दिनों पहले एक इनकम टैक्स ऑफिस से बुलावा आया। सारे कागजात दुरुस्त होने के बावजूद अधिकारी ने हजार रुपए ले लिए तो मन में खटाक से आया कि पैसा तो हाथ की मैल है। कहीं फालतू घूस देनी पड़ जाए, जेब से चोरी हो जाए, घर में डकैती पड़ जाए तो मन को यही तो कहकर तसल्ली देनी पड़ेगी। हमारे वक्त का एक हिस्सा कहीं पहले अटका पड़ा है तो बुजुर्गों की बात आज भी सोलहों आने सच लगती है।

भले ही कहा जाता हो कि लक्ष्मी के पैर कहीं टिकते नहीं, वे चंचला होती हैं, लेकिन हम में से अधिकांश लोग आज भी पैसे को स्थिर चीज मानते हैं। किसी डिब्बे में नोट भरकर रख दिए। बैंक के खाते में जमा करा दिया। बस हो गया काम। बचत करने में हम दुनिया में बहुतों से आगे हैं। लेकिन निवेश करने के मामले में फिसड्डी हैं। डरते हैं कि कहीं कोई हमारी गाढ़ी कमाई लेकर उड़ न जाए। लेकिन जानते नहीं कि रखे हुए नोट भले ही कड़क रहें, उनमें दीमक न लगे, लेकिन वे भी उड़ते रहते हैं क्योंकि पैसे का विशाल बाजार है जिसके तार देश ही नहीं, विदेश तक से जुड़े हैं। यह बाजार एक पल को भी नहीं सोता और इसकी हर हलचल अदृश्य ताकत बन हमारे पैसे को छेड़ती रहती है। एक अनवरत बहती धारा पर तैरता है हमारा पैसा।

पैसे का बाजार, फाइनेंस की दुनिया, वित्त का बाजार। हमारे सारे बैंक व वित्तीय संस्थाएं इसी बाजार का हिस्सा हैं। शेयर बाजार, म्यूचुअल फंड, विदेशी मुद्रा बाजार, कमोडिटी फ्यूचर बाजार। सब इसी से ताल्लुक रखते हैं। वह जमाना गया जब सोने की मात्रा के हिसाब से नोटों का चलन तय होता था। अब तो यहां भी मांग और आपूर्ति का नियम चलता है। रिजर्व बैंक हालात को परखता है और तय करता है कि सिस्टम में कितने नोट डालने या खींचने हैं। वह मौद्रिक नीति के जरिए तय करता है कि पैसा कितना महंगा या सस्ता होना चाहिए, यानी ब्याज दर कितनी होनी चाहिए। देश में डॉलर बहे चले आ रहे हैं तो रिजर्व बैंक तय करता है कि सिस्टम में रुपए का प्रवाह बढ़ाना है या नहीं। इसी से तय होता है कि रुपया डॉलर के सापेक्ष मजबूत होगा, स्थिर रहेगा या कमजोर व सस्सा होगा।

इस पूरे बाजार की चाल को समझना हमारे लिए आज के दौर की जरूरत बन गया है। बहुत मोटी-सी बात है कि हमने बैंक के बचत खाते में 50,000 रुपए रखे हैं, जिस पर हमें 3.5 फीसदी सालाना ब्याज मिलता है। अगर मुद्रास्फीति की दर 9.5 फीसदी है तो साल के अंत में हमारी जमा की असली औकात 3.5 फीसदी ब्याज मिलने के बावजूद 6 फीसदी घट जाएगी। अपनी बचत के इस क्षरण को रोकने के लिए हमें उसका सही निवेश करना जरूरी है। अभी तक हम पारंपरिक रूप से सोने और जमीन-जायदाद में ही निवेश करते रहे हैं। लेकिन अब निवेश के तमाम नए विकल्प खुल गए हैं। बस, जरूरत है तो इन माध्यमों को सही तरीके से समझने की।

वैसे भी अर्थशास्त्री मानते हैं कि अगर लोग बचत अधिक कर रहे हैं और निवेश कम कर रहे हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि उन्होंने समाज में चल रहे मुद्रा प्रवाह को अवरुद्ध किया है। ऐसा लंबे समय में न तो देश-समाज के हित में होता है और न ही व्यक्ति के। अगर बचत और निवेश दोनों बराबर हों तो मुद्रा प्रवाह में से जितना निकाला जाता है, उतना ही डाला जाता है। माना जाता है कि इससे समाज की आय और उत्पादन की मात्रा में कोई बदलाव नहीं आएगा और कीमतें स्थिर बनी रहेंगी।

5 Comments

  1. ये ढोंगी और सत्ता के चमचे अर्थशास्त्री क्या कहेंगे ,सच में अगर ईमानदारी भरा विश्लेसन करना है तो आम लोगों के विचारों का सर्वे ईमानदारी से करने पर ही पता चलेगा की इस पैसे के बाजार और उसके सामाजिक सरोकार तथा देश व समाज के विकाश से उसका नाता कैसा है / आज स्थिति ये है की इस पैसे के बाजार ने सबको चोर और बेईमान बना दिया है ,इन्सान ,इन्सान नहीं पैसों के लिए बोलता और चुप रहता है ,ऐसे पैसे का पेड़ हो या बाजार दोनों बेकार है और इससे जुड़े लोगों की सामाजिक जाँच व मानसिक इलाज की जरूरत है /

  2. वर्तमान में महँगाई के चलते मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए बचत करना तो बहुत ही मुश्किल हो गया है। यह परिवार और नौकरीपेशा वर्ग आदि देश के बहुत बड़े भाग का प्रतिनिधित्व करते हैं और जो धनाढ्‍य वर्ग है इन लोगों के पैसों को अपनी जेबों में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से डाल रहे हैं। उनके पास सभी तरह के निवेश के बाद भी काला धन जमा है। दोनों ही स्थिति किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी नहीं है। 20 रुपए रोज पर गुजारा करने वाली देश की आधे से अधिक जनता हमारे साथ है। हम सोमालिया, जिम्बॉब्वे से तुलना कर ही अपने को श्रेष्ठ मान सकते हैं।

  3. apki nivesh katha ka sar yahi hai ki yahan man lagaiye to dhan milega. ab lekin arth-bevkoof insan ko to ye pata hai ki dhan prakritik sansadhanon mein pasine ki chemistry se khilta hai. ab aap jaise gyanvant se nivedan hai ki ye samjhayen ki paise se paisa paida karne vala ped kis jamin par uga hai, kab se ismein falon ki bahar aayi hai aur ye fal kab tak lagte rahenge. ab ye batane ki liye aapko kasht dene ki gustakhi nahin kahenge ki ye phal kaun khata hai, kyonki ye sarvastu sabko pata hai

  4. Author

    विपिन महोदय,

    अंधउ बधिर न अस कहैं, नयन कान तव बीस। आप जैसे दिन के अंधों को कोई कुछ नहीं दिखा-समझा सकता। आप अपनी समझ लेकर किसी कंदरा में बैठे रहें तो ज्यादा अच्छा रहेगा। एनजीओ की चोंचलेबाजी से अपना पापी पेट भरते रहे, यही आपकी सीमा है।

    बंधुवर! दिमाग में घुस गए अंधेरे को दूर कीजिए, परदे हटाइए। आपको मानसिक शांति मिलेगी। शायद तब आपको यथार्थ की सही तस्वीर दिखने लगे। और हां, मुझे आप या आप जैसे लोगों से कुछ सीखने की जरूरत नहीं है। न ही, अब आप जैसे लोगों से किसी संपर्क की इच्छा है।

    धन्यवाद।

  5. I am very sorry to say that you completely missed my point. I only raised the question about the growth of financialisation, the phenomenon that appears as producing money just out of money, devoid of the mediations of any labour processes, the modern explosion of finance since 90s and wondered how long can it go on to flourish, with the current distance that it has aquired from the base of the real economy. I think it is a valid or rather a burning question of economics and it involved not an iota of any personal aspersions on your write up. Of course it came of a desire to gain further insights on the issue, possibly from you.

    You showered me with rather very personal invectives. You have the freedom to do all this. But it all is horribly misplaced.

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