केंद्र सरकार ने इस साल फरवरी में ही ड्रग टेक्निकल एडवाइजरी बोर्ड (डीटीएबी) की सलाह पर छह विशेषज्ञों की एक कमिटी बना दी थी जिसे तय करना था कि भारत में डायबिटीज की दवा रोज़िग्लाइटाज़ोन की बिक्री व इस्तेमाल पर कैसे बैन लगाया जाए। तब तक अमेरिका का खाद्य व औषधि प्रशासन (यूएसएफडीए) ढिढोरा पीट चुका था कि इस दवा के इस्तेमाल से मरीज को दिल की बीमारी हो सकती है और वह मर भी सकता है। लेकिन भारत सरकार को इस पर बैन लगाने में पूरे नौ महीने लग गए। स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने मंगलवार को राज्यसभा में बताया कि सरकार ने 12 नवंबर 2010 को एक अधिसूचना जारी कर रोज़िग्लाइटाज़ोन को बैन कर दिया है।
मंत्री महोदय ने अपने वक्तव्य में स्वीकार किया कि कैसे इस दवा के साथ हृदय रोग का खतरा जुड़ा हुआ है। उनका कहना था कि यूरोपीय मेडिसिन एजेंसी ने 23 सितंबर 2010 को रोज़िग्लाइटाज़ोन की मार्केटिंग को रोकने की सिफारिश की है और अगले कुछ महीनों में यह दवा यूरोप में कहीं नहीं मिलेगी। यूएसएफडीए भी टाइप-टू डायबिटीज के मरीजों को यह दवा देने से रोक लगा चुका है। संयुक्त अरब अमीरात में इस दवा को बाजार से हटाने का फैसला अभी तक नहीं हो पाया है।
गुलाम नबी आजाद का कहना था कि देश में रोज़िग्लाइटाज़ोन के इस्तेमाल से जुड़े जोखिम के बारे में 7 अक्टूबर 2010 को सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड ऑर्गेनाइजेशन द्वारा गठित विशेषज्ञों की समिति ने विचार किया। समिति ने सलाह दी कि देश में रोज़िग्लाइटाज़ोन का आयात या उत्पादन तत्काल प्रभाव से रोक दिया जाए और ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट के अनुच्छेद 26-ए के तहत इसे प्रतिबंधित कर दिया जाए। यह सुझाव राज्यों के दवा नियंत्रण अधिकारियों तक पहुंचा दिया गया। इसके बाद दवा सलाहकार समिति की बैठक 28 अक्टूबर 2010 को हुई और इसे प्रतिबंधित करने के कानूनी तरीके पर विचार हुआ। फिर 12 नवंबर से रोज़िग्लाइटाज़ोन को प्रतिबंधित कर दिया गया।
लेकिन मंत्री महोदय ने जरा-सा जिक्र भी नहीं किया कि फरवरी से ही इस दवा को बैन करने की कोशिश चल रही थी। उन्होंने नहीं बताया कि उस समय छह विशेषज्ञों की जो समिति बनी थी जिसमें एम्स, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च जैसे सम्मानित संस्थाओं के प्रतिनिधि शामिल थे, उसकी रिपोर्ट का क्या हुआ। असल में यहां भी सब ‘लेन-देन’ का मामला चलता है। इस दवा, रोज़िग्लाइटाज़ोन को बनानेवाली बहुराष्ट्रीय कंपनी का नाम है ग्लैक्सो स्मिथ क्लाइन (जीएसके)। वह इसे एवेन्डिया (Avandia) के ब्रांड नाम से बनाती-बेचती रही है।
2006 तक एवेन्डिया दुनिया में डायबिटीज की सबसे ज्यादा बिकनेवाली दवा थी। लेकिन 2007 में ही यूएसएफडीए ने अपनी जांच के बाद चेतावनी जारी कर दी कि इस दवा को लेने के बाद हृदय रोग का खतरा 60 फीसदी और मौत का खतरा 29 फीसदी बढ़ जाता है। इसके बाद भारत में फार्मा विजिलेंस एडवाइजरी कमिची ने जनवरी 2008 में वैज्ञानिक आंकड़ों का निरीक्षण किया और कहा कि रोज़िग्लाइटाज़ोन के सभी निर्माता इसके पैकेज पर काले बॉक्स में चेतावनी लिखें कि इसमें क्या-क्या जोखिम है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसकी काट के लिए जीएसके देश में प्रेस कांफ्रेंस करवाती रही है जिसमें उसने नामी-गिरामी डॉक्टरों से कहलवाया कि यह दवा पूरी तरह सुरक्षित है।
बता दें कि भारत में डायबिटीज के लगभग 5 करोड़ मरीज हैं, जिनमें से 35 फीसदी इंसुलिन और 65 फीसदी टैबलेट के रूप में दवा का इस्तेमाल करते हैं। हिंदुजा अस्पताल के एक प्रमुख डॉक्टर के अनुसार दवा लेनेवाले लगभग 15 फीसदी मरीज ग्लाइटाज़ोन का इस्तेमाल करते हैं। उनका कहना है कि उन्होंने 2008 से ही अपनी तरफ से यह दवा लिखनी बंद कर दी है। लेकिन तमाम डॉक्टरों ने ऐसा नहीं किया। ऐसे में जो मरीज सारा कुछ सामने आने के बावजूद सरकारी ढिलाही की वजह से यह दवा अभी तक लेते रहे होंगे, उनका क्या होगा। अपनी पहचान न जाहिर करते हुए उन्होंने कहा कि सरकार को यह दवा कई महीने पहले प्रतिबंधित कर देनी चाहिए थी। लेकिन जीएसके जैसी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां बड़े-बड़ों को खरीदने का दम-खम रखती हैं।